ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“हाँ, लेकिन इसके मतलब यह नहीं कि मैं शादी कर लूँ। मुझे बहुत कुछ करना है।”
“अरे जाओ यार, तुम सिवा बातों के कुछ नहीं कर सकते।”
“हो सकता है।” चन्दर ने बात टाल दी। वह शादी तो नहीं ही करेगा।
थोड़ी देर बाद चन्दर ने पूछा, “इन्हें दिल्ली कब भेजोगे?”
“अभी तो जिस दिन मैं जाऊँगा, उस दिन ये दिल्ली मेरे साथ जाएँगी, लेकिन दूसरे दिन शाहजहाँपुर लौट जाएँगी।”
“क्यों?”
“अभी माँ बहुत बिगड़ी हुई हैं। वह इन्हें आने थोड़े ही देती थीं। वह तो लखनऊ के बहाने मैं इन्हें ले आया। तुम शंकर भइया से कभी जिक्र मत करना-अब दिल्ली तो इसलिए चली जाएँ कि मैं दो-तीन महीने बाद लौटूँगा...फिर शायद सितम्बर, अक्टूबर में ये तीन-चार महीने के लिए दिल्ली जाएँगी। यू नो शी इज कैरीइङ्!”
“हाँ, अच्छा!”
“हाँ, यही तो बात है, पहला मौका है।”
दोनों लौटकर कम्पार्टमेंट में बैठ गये।
सुधा बोली, “तो सितम्बर में आओगे न, चन्दर?”
“हाँ-हाँ!”
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