ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
करीब घंटा-भर बाद सुधा दूध का गिलास लेकर आयी। चन्दर को नींद आ गयी थी। वह चन्दर के सिरहाने बैठ गयी-”चन्दर, सो गये क्या?”
“क्यों?” चन्दर घबराकर उठ बैठा।
“लो, दूध पी लो।” सुधा बोली।
“दूध हम नहीं पिएँगे।”
“पी लो, देखो बर्फ और शरबत मिला दिया है, पीकर तो देखो!”
“नहीं, हम नहीं पिएँगे। अब जाओ, हमें नींद लग रही है।” चन्दर गुस्सा था।
“पी लो मेरे राजदुलारे, चमक रहे हैं चाँद-सितारे...” सुधा ने लोरी गाते हुए चन्दर को अपनी गोद में खींचकर बच्चों की तरह गिलास चन्दर के मुँह से लगा दिया। चन्दर ने चुपचाप दूध पी लिया। सुधा ने गिलास नीचे रखकर कहा, “वाह, ऐसे तो मैं नीलू को दूध पिलाती हूँ।”
“नीलू कौन?”
“अरे मेरा भतीजा! शंकर बाबू का लड़का।”
“अच्छा!”
“चन्दर, तुमने पंखा तो छत पर लगा दिया है। तुम कैसे सोओगे?”
“मुझे नींद आ जाएगी।”
चन्दर फिर लेट गया। सुधा उठी नहीं। वह दूसरी पाटी से हाथ टेककर चन्दर के वक्ष के आर-पार फूलों के धनुष-सी झुककर बैठ गयी। एकादशी का स्निग्ध पवित्र चन्द्रमा आसमान की नीली लहरों पर अधखिले बेल के फूल की तरह काँप रहा था। दूध में नहाये हुए झोंके चाँदनी से आँख-मिचौली खेल रहे थे। चन्दर आँखें बन्द किये पड़ा था और उसकी पलकों पर, उसके माथे पर, उसके होठों पर चाँदी की पाँखुरियाँ बरस रही थीं। सुधा ने चन्दर का कॉलर ठीक किया और बड़े ही मधुर स्वर में पूछा, “चन्दर, नींद आ रही है?”
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