ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
सुधा उठकर बैठ गयी। क्षण-भर चन्दर की ओर पथरायी हुई निगाह से देखती रही और बोली, “चन्दर, मैं जाग रही हूँ। तुम्हीं ने उठाया है मुझे...चन्दर। कहीं सपना तो नहीं है कि फिर टूट जाए!” और सुधा सिसक-सिसक कर रो पड़ी। चन्दर की आँखों में आँसू आ गये। थोड़ी देर बाद वह बोला, “सुधा, कोई जादूगर अगर हम लोगों के मन से यह काँटा निकाल देता तो मैं कितना सुखी होता! लेकिन सुधा, अब मैं तुम्हें दुखी नहीं करूँगा।”
“यह तो तुमने पहले भी कहा था, चन्दर! लेकिन इधर जाने कैसे हो गये। लगता है तुम्हारे चरित्र में कहीं स्थायित्व नहीं...इसी का तो मुझे दुख है, चन्दर!”
“अब रहेगा, सुधा! तुम्हें खोकर, तुम्हारे प्यार को खोकर मैं देख चुका हूँ कि मैं आदमी नहीं रह पाता, जानवर बन जाता हूँ। सुधा, अगर तुम आज से महीनों पहले मिल जातीं तो जो जहर मेरे मन में घुट रहा है, वह तुहारे सामने व्यक्त करके मैं बिल्कुल निश्चिन्त हो जाता। अच्छा सुधा, यहाँ आओ। चुपचाप लेट जाओ, मैं तुमसे सबकुछ कह डालूँ, फिर सब भूल जाऊँ। बोलो, सुनोगी?”
सुधा चुपचाप लेट गयी और बोली, “चन्दर! या तो मत बताओ या फिर सभी स्पष्ट बता दो...”
“हाँ, बिल्कुल स्पष्ट सुधी; तुमसे कुछ छिपा सकता हूँ भला!” चन्दर ने हल्की-सी चपत मारकर कहा, “आज मन जैसे पागल हो रहा है तुम्हारे चरणों पर बिखर जाने के लिए...जादूगरनी कहीं की! देखो सुधा-पिछली दफे तुमने मुझे बहुत कुछ बताया था, कैलाश के बारे में!”
“हाँ।”
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