ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“देखो, इसको ऐसे समझो। घबराओ मत! कैलाश ने अगर नारी के व्यक्तित्व को नहीं समझा, सुधा की पवित्रता को तिरस्कृत किया, लेकिन उसने समाज के लिए कुछ तो किया। गेसू ने अपने विवाह का निषेध किया, लेकिन अख्तर के प्रति अपने प्यार का निषेध तो नहीं किया। अपने व्यक्तित्व का निर्माण किया। अपने चरित्र का निर्माण किया। यानी गेसू, एक लड़की से तुम हार गये, छिः!”
“लेकिन मैं कितना थक गया था, यह तो सोचो। मन को कितनी ऊँची-नीची घाटियों से, मौत से भी भयानक रास्तों से गुजरने में और कोई होता तो मर गया होगा। मैं जिंदा तो हूँ!”
“वाह, क्या जिंदगी है!”
“तो क्या करूँ, यह रास्ता छोड़ दूँ? यह व्यक्तित्व तोड़ डालूँ?”
“फिर वही निषेध और विध्वंस की बातें। छिः देखो, चलने को तो गाड़ी का बैल भी रास्ते पर चलता है! लेकिन सैकड़ों मील चलने के बाद भी वह गाड़ी का बैल ही बना रहता है। क्या तुम गाड़ी के बैल बनना चाहते हो? नहीं कपूर! आदमी जिंदगी का सफर तय करता है। राह की ठोकरें और मुसीबतें उसके व्यक्तित्व को पुख्ता बनाती चलती हैं, उसकी आत्मा को परिपक्व बनाती चलती हैं। क्या तुममें परिपक्वता आयी? नहीं। मैं जानता हूँ, तुम अब मेरा भी निषेध करना चाहते हो। तुम मेरी आवाज को भी चुप करना चाहते हो। आत्म-प्रवंचना तो तेरा पेशा हो गया है। कितना खतरनाक है तू अब...तू मेरा भी... तिरस्कार... करना... चाहता... है।” और छाया, धीरे-धीरे एक वह बिन्दु बनकर अदृश्य हो गयी।
चन्दर चुपचाप शीशे के सामने खड़ा रहा।
फिर वह सिनेमा नहीं गया।
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