ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“फिर?”
“फिर क्या, उस समय मेरे मन में प्यार का मतलब था त्याग, कल्पना, आदर्श। आज मैं समझ चुका हूँ कि यह सब झूठी बातें हैं, खोखले सपने हैं!”
“तब?”
“तब! आज मैं विश्वास करता हूँ कि प्यार के माने सिर्फ एक है; शरीर का सम्बन्ध! कम-से-कम औरत के लिए। औरत बड़ी बातें करेगी, आत्मा, पुनर्जन्म, परलोक का मिलन, लेकिन उसकी सिद्धि सिर्फ शरीर में है और वह अपने प्यार की मंजिलें पार कर पुरुष को अन्त में एक ही चीज देती है-अपना शरीर। मैं तो अब यह विश्वास करता हूँ सुधा कि वही औरत मुझे प्यार करती है जो मुझे शरीर दे सकती है। बस, इसके अलावा प्यार का कोई रूप अब मेरे भाग्य में नहीं।” चन्दर की आँख में कुछ धधक रहा था...सुधा उठी, और चन्दर के पास खड़ी हो गयी-”चन्दर, तुम भी एक दिन ऐसे हो जाओगे, इसकी मुझे कभी उम्मीद नहीं थी। काश कि तुम समझ पाते कि...” सुधा ने बहुत दर्द भरे स्वर में कहा।
“स्नेह है!” चन्दर ठठाकर हँस पड़ा-और उसने सुधा की ओर मुडक़र कहा, “और अगर मैं उस स्नेह का प्रमाण माँगूँ तो? सुधा!” दाँत पीसकर चन्दर बोला, “अगर तुमसे तुम्हारा शरीर माँगूँ तो?”
“चन्दर!” सुधा चीखकर पीछे हट गयी। चन्दर उठा और पागलों की तरह उसने सुधा को पकड़ लिया, “यहाँ कोई नहीं है-सिवा इस कब्र के। तुम क्या कर सकती हो? बहुत दिन से मन में एक आग सुलग रही है। आज तुम्हें बर्बाद कर दूँ तो मन की नारकीय वेदना बुझ जाए....बोलो!” उसने अपनी आँख की पिघली हुई आग सुधा की आँखों में भरकर कहा।
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