ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
चन्दर के मन में कहीं कोई टीस उठी। उसके दिल की धडक़नों ने कहीं पर उससे पूछा। '...और चन्दर, तुमने क्या किया? तुम पुरुष थे। तुम्हारे सबल कंधे किसी के प्यार का बोझ क्यों नहीं ढो पाये, चन्दर?' लेकिन चन्दर ने अपनी अन्त:करण की आवाज को अनसुनी करते हुए पूछा- “तो आपके मन में जरा भी दर्द नहीं अख्तर को न पाने का?”
“दर्द?” गेसू की आवाज डूबने लगी, निगाहों की जर्द पाँखुरियों पर हल्की पानी की लहर दौड़ गयी-”दर्द, यह तो सिर्फ सुधा समझ सकती है, चन्दर भाई! बचपन से वह मेरे लिए क्या थे, यह वही जानती है। मैं तो उनका सपना देखते-देखते उनका सपना ही बन गयी थी, लेकिन खैर दर्द इंसान के यकीदे को और मजबूत न कर दे, आदमी के कदमों को और ताकत न दे, आदमी के दिल को ऊँचाई न दे तो इंसान क्या? दर्द का हाल पूछते हैं आप! कयामत के रोज तक मेरी मय्यत उन्हीं का आसरा देखेगी, चन्दर भाई! लेकिन इसके लिए जिंदगी में तो खामोश ही रहना होगा। बंद घर में जलते हुए चिराग की तरह घुलना होगा। और अगर मैंने उनको अपना माना है तो वह मिलकर ही रहेंगे। आज न सही कयामत के बाद सही। मुहब्बत की दुनिया में जैसे एक दिन उनके बिना कट जाता है वैसे एक जिंदगी उनके बिना कट जाएगी...लेकिन उसके बाद वे मेरे होकर रहेंगे।”
चन्दर का दिल काँप उठा। गेसू की आवाज में तारे बरस रहे थे...
“और आपसे क्या कहूँ, चन्दर भाई! क्या आपकी बात मुझसे छिपी है? मैं जानती हूँ। सबकुछ जानती हूँ। सच पूछिए तो जब मैंने देखा कि आप कितनी खामोशी से अपनी दुनिया में आग लगते देख रहे हैं, और फिर भी हँस रहे हैं, तो मैंने आपसे सबक लिया। हमें नहीं मालूम था कि हम और आप, दोनों भाई-बहनों की किस्मत एक-सी है।”
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