लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता

गुनाहों का देवता

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :614
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9577
आईएसबीएन :9781613012482

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

305 पाठक हैं

संवेदनशील प्रेमकथा।


“मिटाने से?” चन्दर उठकर बैठ गया-”मैं मिटाऊँगा अपने को लड़कियों के लिए? छिः, तुम लोग अपने को क्या समझती हो? क्या है तुम लोगों में सिवा एक नशीली मांसलता के? इसके लिए मैं अपने को मिटाऊँगा?”

बिनती ने चन्दर को फिर लिटा दिया।

“इस तरह अपने को धोखा देने से क्या फायदा, चन्दर बाबू? मैं जानती हूँ दीदी के न होने से आपकी जिंदगी में कितना बड़ा अभाव है। लेकिन...”

“दीदी के न होने पर? क्या मतलब है तुम्हारा?”

“मेरा मतलब आप खूब समझते हैं। मैं जानती हूँ, दीदी होतीं तो आप इस तरह न मिटाते अपने को। मैं जानती हूँ दीदी के लिए आपके मन में क्या था?” बिनती ने सिर में तेल डालते हुए कहा।

“दीदी के लिए क्या था?” चन्दर हँसा, बड़ी विचित्र हँसी-”दीदी के लिए मेरे मन में एक आदर्शवादी भावुकता थी जो अधकचरे मन की उपज थी, एक ऐसी भावना थी जिसके औचित्य पर ही मुझे विश्वास नहीं, वह एक सनक थी।”

“सनक!” बिनती थोड़ी देर तक चुपचाप सिर में तेल ठोंकती रही। फिर बोली, “अपनी साँसों से बनायी देवमूर्ति पर इस तरह लात तो न मारिए। आपको शोभा नहीं देता!” बिनती की आँख में आँसू आ गये, “कितनी अभागी हैं दीदी!”

चन्दर एकटक बिनती की ओर देखता रहा और फिर बोला, “मैं अब पागल हो जाऊँगा, बिनती!”

“मैं आपको पागल नहीं होने दूँगी। मैं आपको छोडक़र नहीं जाऊँगी।”

“मुझे छोडक़र नहीं जाओगी!” चन्दर फिर हँसा-”जाइए आप! अब आप श्रीमती बिनती होने वाली हैं। आपका ब्याह होगा। मैं पागल हो रहा हूँ, इससे क्या हुआ? इन सब बातों से दुनिया नहीं रुकती, शहनाइयाँ नहीं बंद होतीं, बन्दनवार नहीं तोड़े जाते!”

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book