ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
सहसा एक चट्टान हिली और उसमें से एक भयंकर प्रेत निकाला। एक सफेद कंकाल-जिसके हाथ में अपनी खोपड़ी और एक हाथ में जलती मशाल और उस मुंडहीन कंकाल ने खोपड़ी हाथ में लेकर चन्दर को दिखायी। खोपड़ी हँसी और बोली, “देखो, जिंदगी का अन्तिम सत्य यह है। यह!” और उसने अपने हाथ की मशाल ऊँची कर दी। “यह कपूर का पहाड़, यह बादलों की साड़ी, यह किरनों का परिधान, यह इन्द्रधनुष के फूल, यह सब झूठे हैं। और यह मशाल, जो अपने एक स्पर्श में इस सबको पिघला देगी।”
और उसने अपनी मशाल एक ऊँचे शिखर से छुआ दी। वह शिखर धधक उठा। पिघलती हुई आग की एक धार बरसाती नदी की तरह उमडक़र बहने लगी।
“भागो, सुधा!” चन्दर ने चीखकर कहा, “भागो!”
सुधा भागी, चन्दर भागा और वह पिघली हुई आग की महानदी लहराते हुए अजगर की तरह उन्हें अपनी गुंजलिका में लपेटने के लिए चल पड़ी। शैतान हँस पड़ा, “हा! हा! हा!” चन्दर ने देखा, सुधा शैतान की गोद में थी।
चन्दर चौंककर जाग गया। पानी बंद था लेकिन घनघोर अँधेरा था। और पिशाचनी की तरह पागल हवा पेड़ों को झकझोर रही थी जैसे युग के जमे हुए विश्वासों को उखाड़ फेंकना चाहती हो। चन्दर काँप रहा था, उसका माथा पसीने से तर था।
वह उठकर नीचे आया। उसके कदम ठीक नहीं पड़ रहे थे। बरामदे की बत्ती जलायी। महराजिन उठी-”का है भइया!” उसने पूछा।
“कुछ नहीं, अन्दर सोऊँगा।” चन्दर ने कहा और सुधा के कमरे में जाकर बत्ती जलायी। सुधा की चारपाई पर लेट गया। फिर उठा, चारों ओर के दरवाजे बन्द कर दिये कि कहीं कोई फिर ऐसा सपना बाहर के भयंकर अँधेरे में से न चला आये।
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