ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
बिसरिया ने अपने गले की टाई ठीक की, वह गरमी में भी टाई लगाता था, और दिन में नाइट कैप पहनता था। टाई ठीक कर, खँखारकर बोला, “मैं भी यही समझता था कि आपको यह गलत-फहमी होगी। लेकिन वास्तविक बात यह है कि मुझे मध्यकाल की कविता बहुत पसन्द है, खासतौर में उसमें बिनती (प्रार्थना) शब्द बड़ा मधुर है। मैंने यह संग्रह तो बहुत पहले तैयार किया था। मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ जब मैं बिनती से मिला। मैंने उनसे कहा कि यह संग्रह भी बिनती नाम का है। फिर मैंने उन्हें लाकर दिखला दिया।”
चन्दर मुसकराया और मन-ही-मन कहा, 'है बिसरिया बहुत चालाक। लेकिन खैर मैं हार नहीं मान सकता।' और बहुत गम्भीर होकर बैठ गया।
“तो यह संग्रह इस लड़की के नाम पर नहीं है?”
“बिल्कुल नहीं।”
“और बिनती के लिए आपके मन में कहीं कोई आकर्षण नहीं?”
“बिल्कुल नहीं। छिः, आप मुझे क्या समझते हैं।” बिसरिया बोला।
“छिः, मैं भी कैसा आदमी हूँ, माफ करना बिसरिया! मैंने व्यर्थ में शक किया।”
बिसरिया यह नहीं जानता था कि यह दाँव इतना सफल होगा। वह खुशी से फूल उठा। सहसा चन्दर ने एक गहरी साँस ली।
“क्या बात है चन्दर बाबू?” बिसरिया ने पूछा।
“कुछ नहीं बिसरिया, आज तक मुझे तुम्हारी प्रतिभा, तुम्हारी भावना, तुम्हारी कला पर विश्वास था, आज से उठ गया।”
“क्यों?”
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