ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
चन्दर ने एक गहरी साँस ली और बगल में बैठी हुई बुआजी से कहा, “बुआजी, अब तो बैठा नहीं जाता। आँखों में जैसे किसी ने मिर्च भर दी हो।”
“जाओ...जाओ, सोय रहो ऊपर, खाट बिछी है। कल सुबह दस बजे विदा करे को है। कुछ खायो पियो नै, तो पड़े रहबो!” बुआ ने बड़े स्नेह से कहा।
चन्दर ऊपर गया तो देखा एक खाट पर बिनती औंधी पड़ी सिसक रही है। “बिनती! बिनती!” उसने बिनती को पकडक़र हिलाया। बिनती फूट-फूटकर रो पड़ी।
“उठ पगली, हमें तो समझाती है, खुद अपने-आप पागलपन कर रही है।” चन्दर ने रुँधे गले से कहा।
बिनती उठकर एकदम चन्दर की गोद में समा गयी और दर्दनाक स्वर में बोली, “हाय चन्दर... अब... क्या... होगा?”
चन्दर की आँखों में आँसू आ गये, वह फूट पड़ा और बिनती को एक डूबते हुए सहारे की तरह पकडक़र उसकी माँग पर मुँह रखकर फूट-फूटकर रो पड़ा। लेकिन फिर भी सँभल गया और बिनती का माथा सहलाते हुए और अपनी सिसकियों को रोकते हुए कहा, “रो मत पगली!”
धीरे-धीरे बिनती चुप हुई। और खाट के पास नीचे छत पर बैठ गयी और चन्दर के घुटनों पर हाथ रखकर बोली, “चन्दर, तुम आना मत छोड़ना। तुम इसी तरह आते रहना! जब तक दीदी ससुराल से लौट न आएँ।”
“अच्छा!” चन्दर ने बिनती की पीठ पर हाथ रखकर कहा, “घबराते नहीं। तुम तो बहादुर लड़की हो न! सब चीज बहादुरी से सहना चाहिए। कैसी दीदी की बहन हो? क्यों?”
बिनती उठकर नीचे चली गयी।
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