ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“क्यों, आज आँचल में हाथ नहीं पोंछोगे?” सुधा बोली। चन्दर ने आँचल हाथ में ले लिया और पलकों पर आँचल दबाकर फूट-फूटकर रो पड़ा।
“छिः, चन्दर! आज तो हम सँभल गये हैं, हमने सब स्वीकार कर लिया चुपचाप। अब तुम कमजोर मत बनो, तुमने कहा था, मैं शान्त रहूँ तो शान्त हो गयी। अब क्यों मुझे भी रुलाओगे! उठो।” चन्दर उठ खड़ा हुआ।
सुधा ने एक पान चन्दर के मुँह में देकर कत्था उसकी कमीज से लगा दिया। चन्दर कुछ नहीं बोला।
“अरे, आज तो लड़ लो, चन्दर! आज से खत्म कर देना।”
इतने में बिनती तौलिया ले आयी। “दीदी, इन्हें कुछ खिला दो। ये खा नहीं रहे हैं।” बिनती ने कहा।
“खिला दिया।” सुधा बोली, “देखो चन्दर, आज मैं नहीं रोऊँगी लेकिन एक शर्त पर। तुम बराबर मेरे सामने रहना। मंडप में रहोगे न?”
“हाँ, रहूँगा।” चन्दर ने आँसू पीते हुए कहा।
“कहीं चले मत जाना! मेरी आखिरी बिनती है।” सुधा बोली। चन्दर तौलिया लेकर चला आया।
चूँकि बारात में कुल आठ ही लोग थे अत: घर की और माथुर साहब की दो ही कारों से काम चल गया। जब ये लोग आये तो नाश्ते का सामान तैयार था और चन्दर चुपचाप बैठा था। उसने फौरन सबका सामान लगवाया और सामान रखवाकर वह जा ही रहा था कि कैलाश ने पीछे से कन्धे पर हाथ रखकर उसे पीछे घुमा लिया और गले से लगकर बोला, “कहाँ चले कपूर साहब, नमस्ते! चलो, पहले नाश्ता करो।” और खींचकर वह चन्दर को ले गया। अपने बगल की मेज पर बिठाकर, उसकी चाय अपने हाथ से बनायी और बोला, “कुछ नाराज थे क्या, कपूर? खत का जवाब क्यों नहीं देते थे?”
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