ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
चन्दर की समझ में नहीं आया, वह क्या करे! आँसू उसके सूख चुके थे। वह रो नहीं सकता था। उसके मन पर कहीं कोई पत्थर रखा था जो आँसुओं की बूँदों को बनने के साथ ही सोख लेता था लेकिन वह तड़प उठा, “सुधा!” वह घबराकर बोला, “सुधा, तुम्हें हमारी कसम है-चुप हो जाओ! चुप...बिल्कुल चुप...हाँ...ऐसे ही!” सुधा चन्दर के पाँवों में मुँह छिपाये थी-”उठकर बैठो ठीक से सुधा...इतना समझ-बूझकर यह सब करती हो, छिः! तुम्हें अपना दिल मजबूत करना चाहिए वरना पापा को कितना दुख होगा।”
“पापा ने तो मुझसे बोलना भी छोड़ दिया है, चन्दर! पापा से कह दो आज तो बोल लें, कल से हम उन्हें परेशान करने नहीं आएँगे, कभी नहीं आएँगे। अब उनकी सुधा को सब ले जा रहे हैं, जाने कहाँ ले जा रहे हैं!” और फिर वह फफक-फफककर रो पड़ी।
चन्दर ने बिनती से पापा को बुलवाया। सुधा को रोते हुए देखकर बिनती खड़ी हो गयी, “दीदी, रोओ मत दीदी, फिर हम किसके भरोसे रहेंगे यहाँ?” और सुधा को चुप कराते-कराते बिनती भी रोने लगी। और आँसू पोंछते हुए चली गयी।
पापा आये। सुधा चुप हो गयी और कुछ कहा नहीं, फिर रोने लगी। डॉक्टर शुक्ला भर्राये गले से बोले, “मुझे यह रोआई अच्छी नहीं लगती। यह भावुकता क्यों? तुम पढ़ी-लिखी लड़की हो। इसी दिन के लिए तुम्हें पढ़ाया-लिखाया गया था! भावुकता से क्या फायदा?” कहते-कहते डॉक्टर शुक्ला खुद रोने लगे। “चलो चन्दर यहाँ से! अभी जनवासा ठीक करवाना है।” चन्दर और डॉक्टर शुक्ला दोनों उठकर चले गये।
अपनी शादी के पहले, हमेशा के लिए अलग होने से पहले सुधा को इतना ही मौका मिला...उसके बाद...
सुबह छह बजे गाड़ी आती थी, लेकिन खुशकिस्मती से गाड़ी लेट थी; डॉक्टर शुक्ला तथा अन्य लोग बारात का स्वागत करने स्टेशन पर जा रहे थे और चन्दर घर पर ही रह गया था जनवासे का इन्तजाम करने। जनवासा बगल में था। माथुर साहब के बँगले के दोनों हॉल और कमरा खाली करवा लिये गये थे। चन्दर सुबह छह ही बजे आ गया था और जनवासे में सब सामान लगवा दिया था। नहाने का पानी और बाकी इन्तजाम कर वह घर आया। जलपान का इन्तजाम तो केदार के हाथ में था लेकिन कुछ तौलिये भिजवाने थे।
“बिनती, कुछ तौलिये निकाल दो।” चन्दर ने बिनती से कहा।
बिनती उर्द की दाल धो रही थी। उसने फौरन उठकर हाथ धोये और कमरे की ओर चली गयी।
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