ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“खाती तो हूँ चन्दर, इससे ज्यादा गरमियों में मैं कभी नहीं खाती थी।” सुधा कहती और इतने दृढ़ स्वर से कि चन्दर से कुछ प्रतिवाद नहीं करते बनता।
अब बाहरी काम लगभग समाप्त हो गये थे। वैसे तो सभी जगह हल्दी छिडक़कर पत्र रवाना किये जा चुके थे लेकिन निमंत्रण-पत्र भी बहुत सुन्दर छपकर आये थे, हालाँकि कुछ देर हो गयी थी। ब्याह को अब कुल सात दिन बचे थे। चन्दर सुबह दस बजे एक डिब्बे में निमंत्रण-पत्र और लिफाफा-भरे हुए आया और स्टडी-रूम में बैठ गया। बिनती बैठी हुई कुछ सिल रही थी।
“सुधा कहाँ है? उसे बुला लाओ।”
सुधा आयी, सूजी आँखें, सूखे होठ, रूखे बाल, मैली धोती, निष्प्राण चेहरा और बीमार चाल। हाथ में पंखा लिये थी। आयी और चन्दर के पास बैठ गयी-”कहो, क्या कर आये, चन्दर! अब कितना इन्तजाम बाकी है?”
“अब सब हो गया, सुधा रानी! आज तो पैर जवाब दे रहे हैं। साइकिल चलाते-चलाते पैर में जैसे गाँठें पड़ गयी हों।” चन्दर ने कार्ड फैलाते हुए कहा, “शादी तुम्हारी होगी और जान मेरी निकली जा रही है मेहनत से।”
“हाँ चन्दर, इतना उत्साह तो और किसी को नहीं है मेरी शादी का!” सुधा ने कहा और बहुत दुलार से बोली, “लाओ, पैर दबा दूँ तुम्हारे?”
“अरे पागल हो गयी?” चन्दर ने अपने पैर उठाकर ऊपर रख लिये।
“हाँ, चन्दर!” गहरी साँस लेते हुए सुधा बोली, “अब मेरा अधिकार भी क्या है तुम्हारे पैर छूने का। क्षमा करना, मैं भूल गयी थी कि मैं पुरानी सुधा नहीं हूँ।” और टप से दो आँसू गिर पड़े। सुधा ने पंखे की ओट कर आँखें पोंछ लीं।
“तुम तो बुरा मान गयीं, सुधा!” चन्दर ने पैर नीचे रखते हुए कहा।
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