ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“इन्हें ब्राह्मण कहत के है, ई तो किरिस्तान है, हमरो धरम बिगाडिऩ हिंयाँ आय कै!” बुआजी बोलीं। बुआजी ने ही यह शादी तय करायी थी, लड़काबताया था और दूर के रिश्ते से वे कैलाश और शंकर की भाभी लगती थीं।
शंकर बाबू ने हाथ धोये और कुर्सी खींचकर बैठ गये। चन्दर, की ओर देखकर बोले, “आइए, होनहार डॉक्टर साहब, आप तो मेरे साथ खा सकते हैं?”
“नहीं, आप खाइए।” चन्दर ने तकल्लुफ करते हुए कहा।
“अजी वाह! मैं ब्राह्मïण हूँ, शुद्ध; मेरे साथ खाकर आपको जल्दी मोक्ष मिल जाएगा। कहीं हाथ में तरकारी लगी रह गयी तो आपके लिए स्वर्ग का फाटक फौरन खुल जाएगा! खाओ।”
दो कौर खाने के बाद शंकर बाबू ने बुआजी से कहा, “यही बहू है, जो लड़की थाली रख गयी थी?”
“अरे राम कहौ, ऊ तो हमार छोरी है बिनती! पहचनत्यौ नै। पिछले साल तो मुन्ने के विवाह में देखे होबो!” बुआजी बोलीं।
शंकर बाबू कैलाश से काफी बड़े थे लेकिन देखने में बहुत बड़े नहीं लगते थे। खाते-पीते बोले, “डॉक्टर साहब! लड़की से कहिए, रोटी दे जाये। मैं इसी तरह देख लूँगा, और ज्यादा तडक़-भड़क की कोई जरूरत नहीं!”
डॉक्टर साहब ने बुआजी को इशारा किया और वे उठकर चली गयीं। थोड़ी देर में सुधा आयी। सादी सफेद धोती पहने, हाथ में रोटी लिये दरवाजे पर आकर हिचकी, फिर आकर चन्दर से बोली, “रोटी लोगे!” और बिना चन्दर की आवाज सुने रोटी चन्दर के आगे रखकर बोली, “और क्या चाहिए?”
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