ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“अच्छा, नहीं-नहीं...” और झटके से सुधा ने आँसू पोंछ लिये। इतने में गेट पर किसी कार का भोंपू सुनाई पड़ा और सुधा भागी।
“अरे, यह तो पम्मी की कार है।” चन्दर बोला। सुधा रुक गयी। पम्मी ने पोर्टिको में आकर कार रोकी।
“हैलो, मेरे जुड़वा मित्र, क्या हाल है तुम लोगों का?” और हाथ मिलाकर बेतकल्लुफी से कुर्सी खींचकर बैठ गयी।
“इन्हें अन्दर ले चलो, चन्दर! वरना अभी वे लोग आते होंगे!” सुधा बोली।
“नहीं, मुझे बहुत जल्दी है। आज शाम को बाहर जा रही हूँ। बर्टी अब मसूरी चला गया है, वहाँ से उसने मुझे भी बुलाया है। उसके हाथ में कहीं शिकार में चोट लग गयी है। मैं तो आज जा रही हूँ।”
सुधा बोली, “हमें ले चलिएगा?”
“चलिए। कपूर, तुम भी चलो, जुलाई में लौट आना!” पम्मी ने कहा।
“जब अगले साल हम लोगों की मित्रता की वर्षगाँठ होगी तो मैं चलूँगा।” चन्दर ने कहा।
“अच्छा, विदा!” पम्मी बोली।
चन्दर और सुधा ने हाथ जोड़े तो पम्मी ने आगे बढक़र सुधा का मुँह हथेलियों में उठाकर उसकी पलकें चूम लीं और बोली, “मुझे तुम्हारी पलकें बहुत अच्छी लगती हैं। अरे! इनमें आँसुओं का स्वाद है, अभी रोयी थीं क्या?” सुधा झेंप गयी।
चन्दर के कन्धे पर हाथ रखकर पम्मी ने कहा, “कपूर, तुम खत जरूर लिखते रहना। चलते तो बड़ा अच्छा रहता। अच्छा, आप दोनों मित्रों का समय अच्छी तरह बीते।” और पम्मी चल दी।
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