ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
थोड़ी देर में तैयार हो गये। सुधा ने जाकर मोटर निकाली और बोली चन्दर से-”तुम चलाओगे या हम? आज हमीं चलाएँ। चलो, किसी पेड़ से लड़ा दें मोटर आज!”
“अरे बाप रे।” पीछे बिनती चिल्लायी, “तब हम नहीं जाएँगे।”
सुधा और चन्दर दोनों ने मुडक़र उसे देखा और उसकी घबराहट देखकर दंग रह गये।
“नहीं। मरेगी नहीं तू!” सुधा ने कहा। और आगे बैठ गयी।
“बिनती, तू पीछे बैठेगी?” सुधा ने पूछा।
“न भइया, मोटर चलेगी तो मैं गिर जाऊँगी।”
“अरे कोई मोटर के पीछे बैठने के लिए थोड़ी कह रही हूँ। पीछे की सीट पर बैठेगी?” सुधा ने पूछा।
“ओ! मैं समझी तुम कह रही हो पीछे बैठने के लिए जैसी बग्घी में साईस बैठते हैं! हम तुम्हारे पास बैठेंगे।” बिनती ने मचलकर कहा।
“अब तेरा बचपन इठला रहा है, बिल्ली कहीं की, चल आ मेरे पास!” बिनती मुसकराती हुई जाकर सुधा के बगल में बैठ गयी। सुधा ने उसे दुलार से पास खींच लिया। चन्दर पीछे बैठा तो सुधा बोली, “अगर कुछ हर्ज न समझो तो तुम भी आगे आ जाओ या दूरी रखनी हो तो पीछे ही बैठो।”
चन्दर आगे बैठ गया। बीच में बिनती, इधर चन्दर उधर सुधा।
मोटर चली तो बिनती चीखी, “अरे मेरे मास्टर साहब!”
चन्दर ने देखा, बिसरिया चला जा रहा था, “आज नहीं पढ़ेंगे...” चन्दर ने चिल्लाकर कहा। सुधा ने मोटर रोकी नहीं।
चन्दर को बेहद अचरज हुआ जब उसने देखा कि मोटर पम्मी के बँगले पर रुकी। “अरे यहाँ क्यों?” चन्दर ने पूछा।
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