ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“जरूर-जरूर,” मुँह बिचकाते हुए चन्दर ने कहा, “और उतनी ही काली होगी, जितने काले गेसू।”
“धत्, शरम नहीं आती किसी लड़की के लिए ऐसा कहते हुए!”
“और हमारे दोस्तों की बुराई करती हो तब?”
“तब क्या! वे तो सब हैं ही बुरे! अच्छा तो नाश्ता, पहले फल खाओ,” और वह प्लेट में छील-छीलकर सन्तरा रखने लगी। इतने में ज्यों ही वह झुककर एक गिरे हुए सन्तरे को नीचे से उठाने लगी कि चन्दर ने झट से उसका प्याला अपने सामने रख लिया और अपना प्याला उधर रख दिया और शान्त चित्त से पीने लगा। सन्तरे की फाँकें उसकी ओर बढ़ाते हुए ज्यों ही उसने एक घूँट चाय ली तो वह चौंककर बोली, “अरे, यह क्या हुआ?”
“कुछ नहीं, हमने उसमें दूध डाल दिया। तुम्हें दिमागी काम बहुत रहता है!” चन्दर ने ठाठ से चाय घूँटते हुए कहा। सुधा कुढ़ गयी। कुछ बोली नहीं। चाय खत्म करके चन्दर ने घड़ी देखी।
“अच्छा लाओ, क्या टाइप कराना है? अब बहुत देर हो रही है।”
“बस यहाँ तो एक मिनट बैठना बुरा लगता है आपको! हम कहते हैं कि नाश्ते और खाने के वक्त आदमी को जल्दी नहीं करनी चाहिए। बैठिए न!”
“अरे, तो तुम्हें कॉलेज की तैयारी नहीं करनी है?”
“करनी क्यों नहीं है। आज तो गेसू को मोटर पर लेते हुए तब जाना है!”
“तुम्हारी गेसू और कभी मोटर पर चढ़ी है?”
“जी, वह साबिर हुसैन काजमी की लड़की है, उसके यहाँ दो मोटरें हैं और रोज तो उसके यहाँ दावतें होती रहती हैं।”
“अच्छा, हमारी तो दावत कभी नहीं की?”
“अहा हा, गेसू के यहाँ दावत खाएँगे! इसी मुँह से! जनाब उसकी शादी भी तय हो गयी है, अगले जाड़ों तक शायद हो भी जाय।”
“छिः, बड़ी खराब लड़की हो! कहाँ रहता है ध्यान तुम्हारा?”
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