ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“आदाबर्ज।” बड़े तमीज से उन्होंने चन्दर को सलाम किया।
चन्दर ने उसे गोद में उठाकर पास बिठा दिया। “लो, हलुआ खाओ, हसरत!”
हसरत ने सिर हिला दिया और बोला, “गेसू ने कहा था, जाकर चन्दर भाई से हमारा आदाब कहना और कुछ खाना मत! हम खाएँगे नहीं।”
चन्दर बोला, “हमारा भी नमस्ते कह दो उनसे जाकर।”
हसरत उठ खड़ा हुआ-”हम कह आएँ।” फिर मुडक़र बोला, “आप तब तक हलुआ खत्म कर देंगे?”
चन्दर हँस पड़ा, “नहीं, हम तुम्हारा इन्तजार करेंगे, जाओ।”
हसरत सिर हिलाता हुआ चला गया।
इतने में सुधा आयी और बोली, “गेसू की गजल सुनो यहाँ बैठकर। आवाज आ रही है न! फूल भी आयी है इसलिए गेसू तुम्हारे सामने नहीं आएगी वरना फूल अम्मीजान से शिकायत कर देगी। लेकिन वह तुमसे मिलने को बहुत इच्छुक है, अच्छा यहीं से सुनना बैठे-बैठे...”
सुधा चली गयी। गेसू ने गाना शुरू किया बहुत महीन, पतली लेकिन बेहद मीठी आवाज में जिसमें कसक और नशा दोनों घुले-मिले थे। चन्दर एक तकिया टेककर बैठ गया और उनींदा-सा सुनने लगा। गजल खत्म होते ही सुधा भागकर आयी-”कहो, सुन लिया न!” और उसके पीछे-पीछे आया हसरत और सुधा के पैरों में लिपटकर बोला, “सुधा, हम हलुआ नहीं खाएँगे!”
सुधा हँस पड़ी, “पागल कहीं का। ले खा।” और उसके मुँह में हलुआ ठूँस दिया। हसरत को गोद में लेकर वह चन्दर के पास बैठ गयी और गेसू के बारे में बताने लगी, “गेसू गर्मियाँ बिताने नैनीताल जा रही है। वहीं अख्तर की अम्मी भी आएँगी और मँगनी की रस्म वहीं पूरी करेंगी। अब वह पढ़ेगी नहीं। जुलाई तक उसका निकाह हो जाएगा। कल रात की गाड़ी से जा रहे हैं ये लोग। वगैरह-वगैरह।”
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