ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
खैर मिठाई का भोग प्रारम्भ हुआ। बिसरिया कुछ तकल्लुफ कर रहा था तो बिनती बोली, “खाइए, मिठाई तो विरह-रोग और भावुकता में बहुत स्वास्थ्यप्रद होती है!”
“अच्छा, अब तो बिनती का कंठ फूट निकला! अपने गुरुजी को बना रही है।” चन्दर बोला।
बिसरिया थोड़ी देर बाद चला गया। “अब मुझे एक पार्टी में जाना है।” उसने कहा। जब आखिर में एक रसगुल्ला बच रहा तो बिनती हाथ में लेकर बोली, “कौन लेगा?” आज पता नहीं क्यों बिनती बहुत खुश थी और बहुत बोल रही थी।
चन्दर बोला, “हमें दो!”
सुधा बोली, “हमें!”
बिनती ने एक बार चन्दर की ओर देखा, एक बार सुधा की ओर। चन्दर बोला, “देखें बिनती हमारी है या सुधा की है।”
बिनती ने झट रसगुल्ला सुधा के मुख में रख दिया और सुधा के सिर पर सिर रखकर बोली-
“हम अपनी दीदी के हैं!” सुधा ने आधा रसगुल्ला बिनती को दे दिया तो बिनती चन्दर को दिखलाकर खाते हुए सुधा से बोली, “दीदी, ये हमें बहुत बनाते हैं, अब हम भी तुम्हारी तरह बोलेंगे तो इनका दिमाग ठीक हो जाएगा।”
“हम-तुम दोनों मिलके इनका दिमाग ठीक करेंगे?” सुधा ने प्यार से बिनती को थपथपाते हुए कहा, “अब हम तश्तरियाँ धोकर रख दें।” और तश्तरियाँ उठाकर चल दी।
“पानी नहीं दोगी?” चन्दर बोला।
बिनती पानी ले आयी और बोली, “हम तो आपका इतना काम करते हैं और आप जब देखो तब हमें बनाते रहते हैं। आपको क्या आनन्द आता है हमें बनाने में?”
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