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घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

ऐतिहासिक उपन्यासों में ऐतिहासिक घटनाओं और पात्रों के साथ-साथ भौगोलिक पृष्ठभूमि का ज्ञान अत्यावश्यक है। घुमक्कड़ का अपना विषय होने से वह कभी भौगोलिक अनौचित्य‍ को अपनी कृतियों में आने नहीं देगा। फिर वृहत्तर भारत-संबंधी उपन्यास लिखने में तो घुमक्कड़ को छोड़कर किसी को अधिकार नहीं है। कुमारजीव, गुणावर्मा, दिवाकर, शांतिरक्षित, दीपंकर श्रीज्ञान, शाक्य श्रीभद्र की जीवनियों के चारों ओर हम उस समय के बृहत्तर भारत का सजीव चित्र उतार सकते हैं। हाँ, इसके लिए घुमक्कड़ को जहाँ तहाँ ठहर कर सामग्री जमा करनी पड़ेगी। चूँकि हमारे पुराने घुमक्कड़ दूर-दूर देशों में चक्कर काटते रहे, इसलिए घुमक्कड़ को सामग्री एकत्रित करने के लिए दूर-दूर तक घूमना पड़ेगा। इतिहास का ज्ञान हरेक सभ्य जाति के लिए अत्यावश्यक है। लेकिन जो इतिहास केवल राजा-रानियों तक ही अपने को सीमित रखता है, वह एकांगी होता है, उससे हमें उस समय के सारे समाज का परिचय नहीं मिलता। ऐति‍हासिक उपन्यास सर्वांगीण इतिहास को सजीव बनाकर रखते हैं। जो ऐतिहासिक उपन्यासकार अपने उत्तरदायित्व को समझता है, वह कभी ऐतिहासिक या भौगोलिक अनौचित्य अपनी कृति में नहीं आने देगा। हमारे घुमक्कड़ के लिए यहाँ कितना बड़ा क्षेत्र है, इसे कहने की आवश्यकता नहीं है।

घुमक्कड़ को अपनी लेखनी चलाते समय बड़े संयम रखने की आवश्यककता है। रोचक बनाने के लिए कितनी ही बार यात्रा-लेखक अतिरंजन और अतिशयोक्ति से ही काम नहीं लेते, बल्कि कितनी ही असंभव और असंगत बातें रहस्यवाद के नाम से लिख डालते हैं। उच्च घुमक्कड़ों की दुनिया में आने के पहले जो भूगोलज्ञान लोगों के पास था, वह मिथ्याविश्वासों से भरा था। लोग समझते थे, किसी जगह एक टँगा लोगों का देश है, वहाँ सभी लोग एक टाँग के होते हैं। कहीं बड़े कान वालों का देश माना जाता था, जिन्हें ओढ़ना-बिछौना की आवश्याकता नहीं, वह एक कान को बिछा लेते हैं और दूसरे कान को ओढ़ लेते हैं। इसी तरह नाना प्रकार की मिथ्या कथाएँ प्राग्-घुमक्कड़ कालीन दुनिया में प्रसिद्ध थीं। घुमक्कड़ों ने सूर्य की भाँति उदय होकर इस सारे तिमिर-तोम को छिन्न-भिन्न किया। यदि आज घुमक्कड़-अपनी दायित्व हीनता का परिचय देते नाना बहानों से मिथ्या विश्वासों को प्रोत्साहन देते हैं, तो वह अपने कुलधर्म के विरुद्ध जाते हैं। कावागूची ने अपने “तिब्बत के तीन वर्ष” ग्रंथ में कई जगह अतिरंजन से काम लिया है। मैं समझता हूँ, यदि उनकी पुस्तक किसी अंग्रेज या अमेरिकन प्रकाशक के लिए लिखी गई होती, तो उसमें और भी ऐसी बातें भरी जातीं। आज प्रेस और प्रकाशन करोड़पतियों के हाथ में चले गये हैं। इंग्लैंड और अमेरिका में उन्हीं का राज्य है। भारत में भी अब वही होता जा रहा है।

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