ई-पुस्तकें >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
घुमक्कड़ के उपयोग की पुस्तकें केवल अंग्रेजी में ही नहीं हैं, जर्मन, रूसी और फ्रेंच में भी ऐसी बहुत सी पुस्तकें हैं। हमारी हिंदी तो देश की परतंत्रता के कारण अभी तक अनाथ थी। किंतु अब हमारा कर्त्तव्य है कि हिंदी में इस तरह के साहित्य का निर्माण करें। हमारे देशभाई व्यापार या दूसरे सिलसिले में दुनिया के कौन से छोर में नहीं पहुँचे हैं? एसिया और यूरोप का कोई स्थान नहीं, जहाँ पर वह न हों। उत्तरी अमेरिका और दक्खिनी अमेरिका के राज्यों में कितनी ही जगहों में हजारों की तादाद में वह बस गये हैं। जिसके हाथ में लेखनी है और जिनकी आँखों ने देखा है, इन दोनों के संयोग से बहुत-सी लोकप्रिय पुस्तकें तैयार कर सकते हैं। अभी तक अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, रूसी, चीनी में जो पुस्तकें भिन्न-भिन्न देशों के बारे में लिखी गई हैं, उनका अनुवाद तो होना ही चाहिए। अरब-पर्यटकों ने आठवीं से चौदहवीं-पंद्रहवीं सदी तक दुनिया के देशों के संबंध में बहुत-से भौगोलिक ग्रंथ लिखे। पश्चिमी भाषाओं में विशेष ग्रंथमाला निकाल इन ग्रंथों का अनुवाद कराया गया। हमारे घुमक्कड़ों को पर्यटन में पूरी सहायता के लिए यह आवश्यक है, कि आदिमकाल से लेकर आज तक भूगोल के जितने महत्त्वपूर्ण ग्रंथ किसी-भाषा में लिखे गये हैं, उनका हिंदी में अनुवाद कर दिया जाय। ऐसे ग्रंथों की संख्या दो हजार से कम न होगी। हमे आशा है, अगले दस-पंद्रह सालों में इस दिशा में पूरा कार्य हो जायगा; तब तक के लिए हमारे आज के कितने ही घुमक्कड़ अंग्रेजी से अनभिज्ञ नहीं हैं। भूगोल-संबंधी ज्ञान के अतिरिक्तक हमें गंतव्य देश के लोगों के बारे में भी पहले से जितनी बातें मालूम हो सकें, जान लेनी चाहिए। भूमि के बाद जो बात सबसे पहले जानने की है, वह है वहाँ के लोगों के वंश का परिचय। तिब्बत, मंगोलिया, चीन, जापान, बर्मा आदि के लोगों की आँखों और चेहरे को देखते ही हमें मालूम हो जाता है, कि वह एक विशेष जाति का है। लेकिन ऐसी आँखें नेपाल में भी मिलती हैं। छोटी नाक, गाल की उठी हड्डी, कुछ अधमुँदी-सी आँखें तथा जरा-सी ऊपर की ओर तनी भौंहें - यह मंगोल वंश के चिह्न हैं। इसी तरह मानववंश-शास्त्र द्वारा हमें नीग्रो, द्रविड़, हिंदी यूरोपीय तथा भिन्न-भिन्न मिश्रित वंशों के संबंध की बहुत सी बातें मालूम हो जायँगी। यह आँख, हड्डी, नाक तथा खोपड़ी की बनावट का ज्ञान आगे फिर उस देश के लोगों का इतिहास जानने में सहायक होगा। स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्य जंगम प्राणी है, वह बराबर घूमता रहा है। मनुष्य-मनुष्य का समिश्रण खूब हुआ है। आज के दोनों मध्य-एसिया और अल्ताई के पच्छिम के भाग में आज मंगोलीय जाति का निवास दिखाई पड़ता है, किन्तु 2100 वर्ष पहले वहाँ उनका पता नहीं था। उस समय वहाँ वह लोग निवास करते थे, जिनके भाई-बंद भारत-ईरान में आर्य और वोल्गा से पच्छिम में शक कहे जाते थे। इसी तरह लदाख के लोग आजकल तिब्बिती बोलते हैं, ईसा की सातवीं सदी से पहले वहाँ मंगोल-भिन्न जाति रहती थी, जिसे खश-दरद कहते थे। नृवंश का थोड़ा-बहुत परिचय गंतव्य देश की यात्रा को अधिक सुगम बना देता है।
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