ई-पुस्तकें >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
स्त्री-पुरुष का एक-दूसरे के प्रति आकर्षण और उसका परिणाम मानव की सनातन समस्या है। इसे हल करने की हर तरह से कोशिश की गई है। आदिम समाज में यह कोई समस्या ही नहीं थी, क्योंमकि वहाँ दोनों का संपर्क-संसर्ग बिलकुल स्वाभाविक रूप से होता था और समाज द्वारा उसमें कोई आपत्ति नहीं उठाई जाती थी। लेकिन जैसे-जैसे समाज का विकास हुआ और विशेषकर स्त्री नहीं पुरुष समाज का स्वामी बन गया, तब से उसने इस स्वाभाविक संसर्ग में बहुत तरह की बाधाएँ डालनी शुरू कीं। बाधाओं को रखकर पहले उसने जहाँ-तहाँ गुंजाइश भी रखी थी। कितनी ही जातियों में - जिन्हें एकदम आदिम अवस्था में नहीं कह सकते - अतिथि सेवा में स्त्री का प्रस्तुत करना भी सम्मिलित था। ग्रीक विचारक ने अपने अतिथि की इस तरह सेवा की थी। देहरादून जिले के जौनसार इलाके में इस शताब्दी के आरंभ तक अतिथि की इस प्रकार से सेवा आम बात थी। इस तरह के यौन-स्वेच्छाचार के जब सभी आदिम तरीके उठा दिये गये, तो भी सारे बंधनों को तोड़कर बहा ले जाने के डर से लोगों ने दोहरे सदाचार का प्रचार शुरू किया - “प्रवृत्ते भैरवीचक्रे, निवृत्ते भैरवीचक्रे”। साधारण समाज के सामने सदाचार का दूसरा रूप रखा गया, और एकांत में स्वगोष्ठी वालों के सामने दूसरा ही सदाचार माना जाने लगा। यह काम सिर्फ भारतवर्ष में बौद्ध या ब्राह्मणतांत्रिकों ने ही नहीं किया, बल्कि दूसरे देशों में भी यह प्रथा देखी गई है। भारत में भी यह प्रथा पुराण-पंथियों तक ही संबंधित नहीं रही, बल्कि कितने ही पूज्य आधुनिक महापुरुषों ने इसे आध्यात्मिक-साधना का एक आवश्यक अंग माना है। यौन-संसर्ग को उसके स्वाभाविक रूप तक में लेना कोई वैसी बात नहीं हैं, लेकिन आध्यात्मिक सिद्धि का उसे साधन मानना, यह मनुष्य की निम्नकोटि की प्रवृत्तियों से अनुचित लाभ उठाना मात्र है, मनुष्य की बुद्धि का उपहास करना है।
प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ से यह आशा नहीं रखी जा सकती, कि आध्यात्म सिद्धि, दर्शन, यौगिक चमत्कार की भूल-भुलैया में पड़कर वह प्राचीन या नवीन वाममार्ग की मोहक व्याख्याओं को स्वीकार करेगा। शायद उसके असली आदिम रूप में स्वीकार करने में उसे उतनी आपत्ति नहीं होगी, किंतु उसे अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष और दुनिया की सारी ऋद्धि-सिद्धियों का साधन मनवाना, यह अति में जाना है। लेकिन स्वाभाविक मानने का यह अर्थ नहीं है, कि घुमक्कड़ उसे बिलकुल हल्के दिल से स्वीकार करे। वस्तुत: उसे अपनी व्याख्या का स्वयं लाभ उठाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, और ख्याल रखना चाहिए, कि वैसा करने पर उसका पंख कट जायगा, और फिर वह आकाशचारी विहग नहीं रह सकेगा।
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