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घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

वृद्ध ने एक तरुण घुमक्कड़ को देखकर कहा - आओ संत, थोड़ा आराम करो। तरुण घुमक्कड़ उसके पास बैठ गया। सामने आग जल रही थी। दक्षिणी अमेरिका से तीन सौ ही वर्ष पहले आए तंबाकू ने साधारण लोगों के जीवन की ही शुष्कता को कुछ हद तक दूर नहीं कर दिया, बल्कि उसके गुणों के कारण आज घुमक्कड़ भी उसके कृतज्ञ हैं। वहाँ आग भी उसी के लिए जल रही थी। नहीं कह सकता, ज्येष्ठ घुमक्कड़ के पास गाँजा था या नहीं। यह भी नहीं कह सकता, कि उस महीने में तरुण गाँजापान से विरत था या नहीं। खैर, ज्येष्ठ घुमक्कड़ ने सूखे तमाखू की चिलम भरी और फिर दोनों बारी-बारी से चिलम का दम लगाते देश-देशांतर की बातें करने लगे। थोड़ी देर में एक तीसरा घुमक्कड़ भी आ गया। चिलम कुछ देर से हाथ में आने लगी, किंतु अब गोष्ठी में तीन कंठों से बातें निकल रही थीं। सूर्य अस्त हो गया, अँधेरा होने की नौबत आई। तीसरे घुमक्कड़ ने तरुण से कहा - “चलें तुंगभ्रदा के तीर, वहाँ और भी तीन मूर्तियाँ है।” ज्येष्ठ घुमक्कड़ से एक चिरपरिचित बंधु की तरह विदाई ले तरुण उसके साथ चल पड़ा। जानते हैं वे तीनों घुमक्कड़ कौन से धर्म को मानते थे। उनका सर्वोपरि धर्म या घुमक्कड़ी, किंतु उन्होंने अपने-अपने व्यक्तिगत धर्म भी मान रखे थे। ज्येष्ठ घुमक्कड़ एक मुसलमान फकीर, अच्छा घुमक्कड़ था, तरुण घुमक्कड़ इन्हीं पंक्तियों का लेखक था, और उस समय शंकराचार्य और रामानुजाचार्य के पंथों के बीच में लटक रहा था, तथा पूछताछ में थोड़ा ही उदार हो पाया था। तीसरा घुमक्कड़ शायद कोई संन्यासी था।

तुंगभद्रा के किनारे पत्थर की मढ़ियों और घरों की क्या कमी थी, जब कि विजयनगर की सारी नगरी वहाँ बिखरी हुई थी। मढ़ी नहीं पत्थर का ओसारा जैसा था। लड़की की कमी नहीं थी, यह इसी से स्पष्ट था कि धूनी में मन-मन-भर के तीन-चार कुंदे लगे हुए थे। उस प्रदेश में जाड़ा अधिक नहीं होता, तो भी यह पूस-माघ का महीना था। पाँच मूर्तियाँ धूनी के किनारे बैठी हुई थीं। किसी के नीचे कंबल था, किसी के नीचे मृगछाला। दूकान शायद पास में नहीं थी, यदि रही होती तो अवश्य उनमें से किसी ने भी अपने गाँठ के पैसे को खोलने में कम उतावलापन नहीं दिखलाया होता। घुमक्कड़ी का रस यहाँ छल्-छल् बह रहा था, किसी में 'मैं' और 'मेरे' की भावना न थी, न किसी तरह की चिंता थी। उनमें न जाने कौन कहाँ पैदा हुआ था। घुमक्कड़ जब तक कोई विशेष प्रयोजन न हो, किसी का जन्मस्थान नहीं पूछते और जात-पाँत पूछना तो घटिया श्रेणी के घुमक्कड़ों में ही देखा जाता है। किसी ने आटे को गूँध दिया और किसी ने बड़े-बड़े टिक्कर धूनी की एक ओर हटाई निर्धूम आग में डाल दिये, किसी ने चिलम भरकर भीगी साफी के साथ दोनों हाथों से सर्वज्येष्ठ पुरुष के हाथ में दिया और उसने “लेना हो शंकर, गांजा है न कंकर। कैलाशपति के राजा, दम लगाना हो तो आ जा।” कहकर एक हल्की और दूसरी कड़ी टान खींची, फिर मुँह से धुएँ की विशाल राशि को चारो ओर बिखेरते हुए अपने बगल के घुमक्कड़ के हाथ में दे दिया।

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