ई-पुस्तकें >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
|
7 पाठकों को प्रिय 322 पाठक हैं |
यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
बुद्ध और महावीर जैसे सृष्टिकर्त्ता ईश्वर से इनकारी महापुरुषों की घुमक्कड़ी की बात से यह नहीं मान लेना होगा, कि दूसरे लोग ईश्वर के भरोसे गुफा या कोठरी में बैठकर सारी सिद्धियाँ पा गये या पा जाते हैं। यदि ऐसा होता, तो शंकराचार्य, साक्षात् ब्रह्मस्वरूप थे, क्यों भारत के चारों कोनों की खाक छानते फिरे? शंकर को शंकर किसी ब्रह्मा ने नहीं बनाया, उन्हें बड़ा बनाने वाला था यही घुमक्कड़ी घर्म। शंकर बराबर घूमते रहे - आज केरल देश में थे तो कुछ ही महीने बाद मिथिला में, और अगले साल काश्मीर या हिमालय के किसी दूसरे भाग में। शंकर तरुणाई में ही शिवलोक सिधार गये, किंतु थोड़े से जीवन में उन्होंने सिर्फ तीन भाष्य ही नहीं लिखे; बल्कि अपने आचरण से अनुयायियों को वह घुमक्कड़ी का पाठ पढ़ा गये, कि आज भी उसके पालन करने वाले सैकड़ों मिलते हैं। वास्को-डि-गामा के भारत पहुँचने से बहुत पहिले शंकर के शिष्य मास्को और योरुप तक पहुँचे थे। उनके साहसी शिष्य सिर्फ भारत के चार धामों से ही सन्तुष्ट नहीं थे, बल्कि उनमें से कितनों ने जाकर बाकू (रूस) में धूनी रमाई। एक ने पर्यटन करते हुए वोल्गा तट पर निज्नीथनोवोग्राद के महामेल को देखा। फिर क्या था, कुछ समय के लिए वहीं डट गया और उसने ईसाइयों के भीतर कितने ही अनुयायी पैदा कर लिए, जिनकी संख्या भीतर-ही-भीतर बढ़ती इस शताब्दी के आरंभ में कुछ लाख तक पहुँच गई थी।
रामानुज, मध्वाचार्य और दूसरे वैष्णवाचार्यों के अनुयायी मुझे क्षमा करें, यदि मैं कहूँ कि उन्होंने भारत में कूप-मंडूकता के प्रचार में बड़ी सरगर्मी दिखाई। भला हो, रामानंद और चैतन्य का, जिन्होंने कि पंक से पंकज बनकर आदिकाल से चले आते महान घुमक्कड़ धर्म की फिर से प्रतिष्ठापना की, जिसके फलस्वरूप प्रथम श्रेणी के तो नहीं किंतु द्वितीय श्रेणी के बहुत-से घुमक्कड़ उनमें भी पैदा हुए। ये बेचारे बाकू की बड़ी ज्वालामाई तक कैसे जाते, उनके लिए तो मानसरोवर तक पहुँचना भी मुश्किल था। अपने हाथ से खाना बनाना, मांस-अंडे से छू जाने पर भी धर्म का चला जाना, हाड़-तोड़ सर्दी के कारण हर लघुशंका के बाद बर्फीले पानी से हाथ धोना और हर महाशंका के बाद स्नान करना तो यमराज को निमन्त्रण देना होता, इसीलिए बेचारे फूँक फूँककर ही घुमक्कड़ी कर सकते थे। इसमें किसे उज्र हो सकता है, कि शैव हो या वैष्णव, वेदान्ती हो या सदान्ती, सभी को आगे बढ़ाया केवल घुमक्कड़-धर्म ने।
|