ई-पुस्तकें >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
बगल की जेब में पड़ी या जामा के कमरबंद में लगी अथवा पीठ की भारी में पड़ी वंशी को उठाता है। उसे मुँह पर लगाकर धीरे-धीरे कोकिल-कंठी के लय को उतारने की कोशिश करता है और थोड़े समय में उसे पकड़ लेता है। जनगीतों के लय बहुत सरल होते हैं, किंतु उसका अर्थ यह नहीं कि उसमें मनोहारिता की कमी होती है। तरुण दस-पाँच मिनट के परिश्रम के बाद अब किसी देवदार की घनी छाया के नीचे बैठा कोकिलकंठी के गान को अपनी वंशी में अलापने लगता है। वंशी का स्वर आस-पास में रहने वाली कोकिल-कंठियों को अपने ओर खींचे बिना नहीं रहेगा। आगंतुक को परिचय करने के लिए कोशिश करने की आवश्यकता नहीं, स्वयं कोकिल-कंठी और उसकी सहचरियाँ यमुना किनारे ब्रज की गोपिकाओं की भाँति विह्वल हो उठेंगी। आगंतुक तरुण खंपा लोगों की भाषा नहीं जानता, उसकी सूरत मंगोलियन नहीं है, इससे कोकिल-कंठी समझ जाएगी कि यह कोई विदेशी है। किंतु वह तान तो विदेशी नहीं है। भाषा न जानने की बाधा हवा हो जाएगी और तरुण घुमक्कड़ परमपरिचित बन जायगा। इशारे से सारी बातें जान जायँगी और उनके मन में यह ध्यान आ जायगा कि इस अपरिचित प्रवासी को अकेले निरीह नहीं छोड़ना चाहिए। बस दो तानों की और आवश्ययकता होगी, जैसे कि वह भारत के किसी कोने में हो। यदि बीणा, सितार जैसे लंबे, भारी बाजों को वहाँ ले जाया जा सके, तो सिद्धहस्त घुमक्कड़ उनके द्वारा अपने गुण का परिचय दे सकेगा, किंतु क्या वह उन्हें उसी तरह साथ ले जा सकता है, जैसे वंशी को। इसीलिए मैं वंशी को घुमक्कड़ का आदर्श वाद्य कहता हूँ।
वंशी हो या कोई भी वाद्य, उसका सीखना उसी व्यक्ति के लिए सुगम और अल्पसमय-साध्य है जिसकी संगीत के प्रति स्वत: रुचि है। मैं एक बारह-तेरह वर्ष के लड़के के बारे में जानता हूँ। उसे वंशी बजाने का शौक था। खेल-खेल में वंशी बजाना उसने शुरू किया, किसी के पास सीखने नहीं गया। जो कोई गाना सुनता, उसे अपनी वंशी में उतारने की कोशिश करता। इस प्रकार 12-13 वर्ष की उम्र में वंशी उसकी हो गयी थी। जिसमें स्वाभाविक रुचि है, उसे वंशी को अपनाना चाहिए। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं, कि जिसका दूसरे वाद्यों से प्रेम है, वह उन्हें छूए नहीं। वंशी को तो उसे कम-से-कम अवश्य ही सीख लेना चाहिए, इसके बाद चाहे तो और भी वाद्यों को सीख सकता है। बेहतर यह भी है कि अवसर होने पर आदमी एकाध विदेशी वाद्यों का भी परिचय प्राप्त कर ले। पहली यूरोप यात्रा में मैं जिस जहाज में जा रहा था, उसमें यूरोपीय नर-नारी काफी थे, और सायंकाल को नृत्यमंडली जम जाती थी। अधिकतर वह ग्रामोफोन रिकार्डों से बाजे का काम लेते थे। मेरे एक भारतीय तरुण साथी जहाज से जा रहे थे, वह भारतीय बाजों के अतिरिक्त पियानो भी बजाते थे। लोगों ने उन्हें ढूँढ़ लिया, और दो ही दिनों में देखा गया, वह सारी तरुण-मंडली के दोस्त हो गये। जैसे जहाज में हुआ, वैसे ही यूरोप के किसी गाँव में भी वह पहुँचते, तो वहाँ भी यही बात होती।
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