ई-पुस्तकें >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
माता - घुमक्कड़ी का अंकुर किस आयु में उद्धत होता है, किस आयु में वह परिपूर्णता को प्राप्ता होता है, किस समय अभिनिष्क्रमण करना चाहिए, यह किसी अगले अध्याय का विषय है। लेकिन जंजाल तोड़ने की बात कहते हुए भी यह बतला देना है, कि भावी घुमक्कड़ के तरुण-हृदय और मस्तिष्क को बंधन में रखने में किनका अधिक हाथ है। शत्रु आदमी को बाँध नहीं सकता और न उदासीन व्यक्ति ही। सबसे कड़ा बंधन होता है स्नेह का, और स्नेह में यदि निरीहता सम्मिलित हो जाती है, तो वह और भी मजबूत हो जाता है। घुमक्कड़ों के तजुर्बे से मालूम है, कि यदि वह अपनी माँ के स्नेह और आँसुओं की चिंता करते, तो उनमें से एक भी घर से बाहर नहीं निकल सकता था। 15-20 वर्ष की आयु के तरुण-जन के सामने ऐसी युक्तियाँ दी जाती हैं, जो देखने में अकाट्य-सी मालूम होती हैं- “तुम कैसे कठोर हृदय हो? माता के हृदय की ओर नहीं देखते? उनकी सारी आशाएँ तुम्हीं पर केन्द्रित हैं। जिसने नौ महीने कोख में रखा, अपने गीले में रह तुम्हें सूखे में सुलाया, वह माँ तुम्हा्रे चले जाने पर रो-रो के अन्धी हो जायगी। तुम ही एक उसके अवलंब हो।” यह तर्क और उपदेश घुमक्कड़ के संकल्प तथा उत्साह पर हजारों घड़े पानी ही नहीं डाल देते, बल्कि उससे भी अधिक माँ की यहाँ वर्णित अवस्था उसके मन को निर्बल कर देती है। माता का स्नेह बड़ी अच्छी चीज है; अच्छी ही नहीं कह सकते हैं, उससे मधुर, सुंदर और पवित्र स्नेह और संबंध हो ही नहीं सकता, माँ के उपकार सचमुच ही चुकाए नहीं जा सकते। किंतु उनके चुकाने का यह ढंग नहीं है, कि तरुण पुत्र माँ के आँचल में बैठ जाय, फिर कोख में प्रवेश कर पाँच महीने का गर्भ बन जाय। माँ के सारे उपकारों का प्रत्युपकार यही हो सकता है, कि पुत्र अपनी माँ के नाम को उज्ज्वल करे, अपनी उज्ज्वल कृतियों और कीर्ति से उसका नाम चिरस्थायी करे। घुमक्कड़ ऐसा कर सकता है। कई माताएँ अपने यशस्वी-पुत्रों के कारण अमर हो गईं; घुमक्कड़-राज बुद्ध के “मायादेवी सुत” के नाम ने अपनी माता माया को अमर किया। सुवर्णाक्षी-पुत्र अश्वघोष ने पूर्व भारत में गंधार तक घूमते, अपने काव्य और ज्ञान से लोगों के हृदयों को पुलकित, अलोकित करते साकेतवासिनी माता सुवर्णाक्षी का नाम अमर किया। माताएँ क्षुद्र तथा तुरन्त के स्वार्थ के कारण अपने भावी घुमक्कड़ पुत्र को नहीं समझ पातीं और चाहती हैं कि वह जन्म-कोठरी में, कम-से-कम उसकी जिंदगी-भर, बैठा रहे। साधारण अशिक्षित माता ही नहीं, शिक्षित माताएँ भी इस बारे में बहुधा अपने को मूढ़ सिद्ध करती हैं, और घुमक्कड़ी यज्ञ में बाधा बनती हैं। जो माताएँ कुछ भी समझने की शक्ति नहीं रखतीं, उनके पुत्रों से इतना ही कहना है, कि आँख मूँद कर, आँख बचा कर घर से निकल पड़ो। पहला घाव पीड़ाप्रद होता है, माँ को जरूर दर्द होगा; लेकिन सारे जीवन-भर माताएँ रोती नहीं रहतीं। कुछ दिन रो-धोकर अपने ही आँखों में आँसू सूख जायँगे, नेत्रों पर चढ़ी लाली दूर हो जायगी। अगर माँ के पास एक से अधिक सन्तान हैं, तो वह दर्द और भी सह्य हो जायगा। सचमुच जो भावी घुमक्कड़ एकपुत्रा माँ के बेटे नहीं हैं, उनको तो कुछ सोचना ही नहीं चाहिए। भला दो अंगुल तक ही देखने वाली माँ को कैसे समझाया जा सकता है?
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