ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘दीपक मुझे तुमसे यह आशा न थी कि तुम मेरे इस स्वतंत्र बर्ताव को इतना गलत समझोगे। मैं तो तुम्हें एक चरित्रवान व्यक्ति समझती हूं।’
‘किसी से प्रेम करना तो कोई पाप नहीं और न ही मैं तुम्हें बहकाने का प्रयत्न कर रहा हूं। वह तो सीधी-सी बात है कि मैं तुम्हें अपना जीवन-साथी बनाना चाहता हूं।’
‘इसके लिए तुम्हें मेरे डैडी के पास जाना चाहिए। मैं मानती हूं कि मैं एक स्वतंत्र विचारों वाली लड़की हूं और सबसे भली प्रकार हंस-बोल देती हूं परंतु इसका अर्थ यह तो नहीं कि मैं अपनी मान-मर्यादा में न रहूं।’
‘मैंने तुम्हारे हृदय को टटोलना आवश्यक समझा। यदि तुम ही तैयार नहीं हो तो मेरा तुम्हारे डैडी से पूछना व्यर्थ है।’
‘परंतु मेरा अभी विवाह करने का कोई इरादा नहीं और न ही अभी चार-पांच वर्ष तक इस विषय में सोच सकती हूं।’
‘तुम जब तक कहो, मैं प्रतीक्षा कर सकता हूं, परंतु एक बार हृदय को यह विश्वास तो होना चाहिए कि इसमें तुम्हारी स्वीकृति है!’
‘यदि मैं विश्वास दिला दूं और डैडी न मानें तो?’
‘हृदय पर पत्थर बांधकर बैठ जाऊंगा।’
‘यह भी तो सम्भव है कि मुझे पाने के लिए तुम उचित-अनुचित का ध्यान खो बैठो?’
‘इसकी नौबत नहीं आएगी। तुम भूल रही हो कि मुझे प्रेम के साथ-साथ तुम्हारी मान-मर्यादा का भी ध्यान है।’
‘और यदि मैं कह दूं कि....।’
‘क्या कह दो?’ दीपक ने आकुलता से पूछा।
‘कि तुम मुझे पसंद नहीं।’
दीपक के हृदय पर एक बिजली-सी गिर पड़ी।
‘अभी तो तुम कह रही थीं कि मैं तुम्हें अच्छा लगता हूं।’
‘परंतु किसी और नाते से।’
‘तब तो कथा ही समाप्त हो गई। मुझे यदि मेरे ही मिथ्या विश्वास मार डालें और उसमें तुम्हारा क्या दोष?’
दीपक यह कहकर उठा और बाहर जाने लगा।
लिली ने आवाज दी, ‘क्यों कहां चल दिए?’
दीपक ने कोई उत्तर नहीं दिया और अपने कमरे की ओर चल दिया। लिली को क्या वह गलत समझा? उसे विश्वास भी न हो पाता। वह चंचल मुख, मधुर मुस्कान, मदभरे नयन... वह क्यों बेचैन हो उठता था उन्हें देखने को? यह प्रेम नहीं तो क्या भ्रम था... निरा छल?
उसने द्वार बंद कर लिया और चुपचाप बिस्तर पर पड़ रहा। बाहर मूसलाधार वर्षा शुरु हो गई थी। थोड़ी ही देर बाद सेठ साहब आए। खाने के लिए बुलावा भेजा तो उसने तबियत ठीक न होने का बहाना कर दिया।
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