ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘चलो रहने दो।’ दीपक ने बिगड़ते हुए कहा।
‘तुम्हारी इच्छा।’ लिली ने मुंह चिढ़ाकर उत्तर दिया।
‘इसमें मुंह बनाने की क्या आवश्यकता है। शायद तुम्हें मेरा तुम्हारे साथ इस प्रकार जबरदस्ती चला आना पसंद नहीं।’
‘नहीं, यह तो कोई बात नहीं, तुम तो व्यर्थ ही छोटी-छोटी बातों को पकड़ लेते हो। अब जी न करे तो कैसे खा लूं।’
‘किसी का मन रखने के लिए।’
‘यह तो हमसे नहीं हो सकता।’
‘तुम किसी का दिल क्या रखोगी! सिनेमा के टिकट तक मंगवा लिए और मुझे पूछना तो एक ओर रहा, बतलाया तक नहीं।’
‘तुम भी अजीब इंसान हो। इतना भी नहीं समझते। डैडी का तो केवल एक बहाना था। उनके पास सिनेमा के लिए अवकाश कहां! सोचा था उनके मना करने पर तुमसे प्रार्थना करूंगी। उसकी आवश्यकता ही न पड़ी। डैडी ने अपने आप ही तुम्हें भेज दिया।’
‘सच कह रही हो लिली?’
‘तो मुझे इसमें झूठ बोलकर लेना ही क्या है।’
‘हैलो लिली! फैशनेबल कपड़े पहने एक युवक ने लिली के निकट आते हुए कहा।’
‘तुम तो कह रहे थे कि सीट बुक नहीं हो सकती।’
‘प्रबंध कर ही लिया है।’
‘ओह!’ लिली ने दीपक की ओर देखते हुए कहा। दीपक तीखी निगाहों से उन दोनों को देख रहा था। लिली बोली, ‘यह है मिस्टर दीपक, जिनके बारे में मैं बहुत बार आपसे बात करती हूं और यह है मिस्टर सागर, जो हमारे सामने वाली कोठी में रहते हैं।’
‘बहुत प्रसन्नता हुई आपसे मिलकर।’ दीपक ने सागर से हाथ मिलाते हुए कहा, ‘देखा तो आपको कई बार है परंतु भेंट नहीं हुई।’
‘कदाचित् आप लिली के साथ पढ़ते हैं।’
‘जी कॉलेज तो एक ही है परंतु कक्षा भिन्न हैं। मैं इस वर्ष एम.ए. की तैयारी कर रहा हूं और यह...।’
‘वह तो मैं जानता ही हूं।’
‘लिली तुम्हारी सीट्स कहां की हैं!’ सागर ने लिली से पूछा।
‘स्टॉल्स की और तुम?’
‘मैं तो बॉलकनी में हूं। जरा एक बात सुनो। दीपक दो मिनट के लिए क्षमा चाहता हूं।’ सागर ने लिली को कुछ दूर ले जाते हुए कहा।
‘लिली, मेरे साथ एक मित्र है। कहो तो उसे नीचे तुम्हारे मैनेजर के पास भेज दें और तुम मेरे साथ...।’
‘नहीं सागर, ऐसा नहीं हो सकता। तुम्हें मुझे इस प्रकार बुलाना नहीं चाहिए था।’ लिली ने दीपक की ओर देखते हुए कहा जो इस समय उन्हीं की ओर देख रहा था।
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