ई-पुस्तकें >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘इट्स आल राइट गीता! इस बात को इतना बड़ा मत बनाओ!’ सावित्री बोली और देव को सही ठहराया।
‘ठीक है! जैसा आप उचित समझे!’ आखिर में पण्डित देव की बात समझ ही गया। वो देव से सहमत हो गया।
तभी गंगा की माँ रुकमणि सामने आई। वो भी देव को बेटवा! बेटवा! कर सम्बोधित करती थी। वो कभी देव का नाम नहीं लेती थी।
‘बेटवा! हम हलवाइयन मा आदमी के आसन गरू होत है काहेकि वही तो दुकान सम्भारत है और दुकान से हम लोग के हुक्का-पानी चलत है!’ वो बोली देव को समझाते हुए।
‘हमार बिटिया से शादी कर तू हमार दुकान चलइबो! गंगा के बाबू के नाम चली! हमका नाती-नातिन देखें के मिली! इमारे तोहार वैलू बहुत ज्यादा है! इ मारे तू बिटिया से पैर छुआए लो!’ रुकमणि ने देव को समझाते हुए कहा।
‘अम्मा! आप इतना जोर दे रही हो तो ठीक है! हम आपकी बात नहीं काटेगें!’ देव बोला। फिर देव ने अपने दोनो पैर आगे किए। गंगा ने बड़े ढंग से अपने लम्बे से घूँघट को सम्भाला और देव के पैर छुऐ और फिर सीधे हाथ से अपने बालों पर हाथ फेरा।
‘ये विवाह समपन्न हुआ! अब आप दोनों पति-पत्नी हैं! सदा सुहागिन रहो कन्या!’ बहुत ही भले हृदय वाले पण्डित ने गंगा के सिर पर हाथ रख आर्शीवाद दिया।
देव ने तपस्या की थी। पूजा-पाठ किया था। भगवान को प्रसन्न किया था। देव ने गंगा का वरण किया था। इसलिए ये शादी नहीं बल्कि एक स्वयंवर था। मैंने तुलना की गोशाला और रानीगंज में होने वाली अन्य शादियों से....
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