ई-पुस्तकें >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘गायत्री! मेरा मन नहीं है!‘‘ देव ने इन्कार कर दिया। वो एक बार फिर से उदास होकर बोला। उदासी ने एक बार फिर से देव को घेर लिया। मैंने देखा....
‘‘ओफ्फो! देव!..... जिस लड़की को तुम्हारे आँसू नहीं दिखते, उसके लिए क्या रोना?‘‘ गायत्री को थोड़ा गुस्सा आ गया था।
‘‘लात मारो उसको! उसकी एक फोटो बनाओ, उसमें आग लगाओ और टाँयलेट में फ्लश कर दो हमेशा के लिए! वो ‘जब वी मेट देखी है?‘‘ गायत्री का गुस्सा और बढ़ गया। गायत्री ने ये वाक्य कहे कठोर शब्दों में।
‘‘लाओ इसे फेंक दूँ!‘‘ गायत्री खीर को ले जाने लगी। खीर अब तक पूरी तरह ठंडी हो चुकी थी, शायद इसका स्वाद भी समाप्त हो रहा था। मैंने पाया....
‘‘नहीं! मैं इसे खा लूँगा!‘‘ देव ने काँच का बाउल गायत्री के हाथ से छीन लिया जब जाना कि अगर खीर न खाई तो गायत्री को बहुत बुरा लगेगा।
देव ने न चाहते हुये भी धीरे-धीरे बेमन से चम्मच से खीर खानी शुरु की संघर्ष करते हुए।
पर ये क्या? सेन्टीमेंटल देव हूँ! हूँ! कर फूट-फूट कर रोने लगा बड़ी जोर से। वह ताश के पत्तों के महल; जो अक्सर बच्चे बनाते है खेल-खेल में ताश के पत्तों को जोड़करद्ध की तरह एक ही सेकेण्ड में ढह गया। मैंने बिल्कुल साफ-साफ देखा....
‘‘देव! रोना मत! रोना मत!‘‘ मैंने देव को सावधान किया....
‘‘अगर रोओगे तो गायत्री क्या सोचेगी कि ये लड़का तो बिल्कुल लड़कियों की तरह रोता है! ये तो बिल्कुल भी टफ नहीं है! लड़कों वाली, मर्दों वाली तो इसमें कोई बात ही नहीं! कितनी शेम-शेम होगी तुम्हारी? कितनी बेइज्जती होगी तुम्हारी!‘‘ तरह-तरह से मैंने देव को समझाया, बुझाया, चुप कराया, डाँटा-डपकारा।
पर देव खुद को रोक न सका।
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