ई-पुस्तकें >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
देव की आवाज सुनते ही सावित्री जैसे बावली हो उठी। उसके दिल की धड़कन तेज हो गयी...
दयाराम! अच्छा ये तो बता कि मेरा देव देखने में कैसा लगता है? मोटा-वोटा हुआ कि नहीं.... या पहले की तरह सूखा है? क्या उसे दिल्ली का पानी सूट किया?’ सावित्री ने एक के बाद अनगिनत सवाल दयाराम से पूछे, बड़ी बेचैनी और हड़बड़ाहट में। असलियत में वो आज इतनी ज्यादा खुश दी कि अपने आप को संभाल ही नहीं पा रही थी। मैंने नोटिस किया ...
‘अरे! मालकिन! आपको इतना इंतजार करने की कोई जरूरत नहीं है! देव बाबू आ गये हैं.... सभी लोग बैठक वाले कमरे में हैं!... आपका इंतजार कर रहे हैं!’ दयाराम ने बिना देर लगाऐ झट से सावित्री को बताया।
‘रूक जा! रूक जा! दयाराम! काला टीका तो बना लूँ.... कहीं ऐसा न हो कि देव को देखूँ तो मेरी नजर ही लग जाए!’ सावित्री बड़ी जल्दबाजी से काला टीका बनाने लगी।
अब वो अपने पहली मन्जिल वाले कमरे से निकली और गोल-गोल घूमती हुई सीढि़यों से एक हाथ से अपनी साड़ी और दूसरे हाथ में आरती वाली थाली को लेकर धीरे-धीरे नीचे हाल की तरफ उतरने लगी जहाँ पूरा परिवार पहले से ही जमा था।
सावित्री एक पल में नीचे उतरकर देव को सीने से लगा लेना चाहती थी... पर बहुत अधिक उत्सुकता ने मन में घबराहट को जन्म दे दिया था। इसलिए सावित्री ज्यों-ज्यों नीचे पैर रखती जाती थी, उसकी घबराहट भी बढ़ रही थी। घबराहट मतलब देव से मिलने की खुशी।
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