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फ्लर्ट

प्रतिमा खनका

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :609
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9562
आईएसबीएन :9781613014950

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जिसका सच्चा प्यार भी शक के दायरे में रहता है। फ्लर्ट जिसकी किसी खूबी के चलते लोग उससे रिश्ते तो बना लेते हैं, लेकिन निभा नहीं पाते।

76

चार दिन बाद।


मैं डॉली के अन्धेरे, सुनसान फ्लैट में अकेला खड़ा था। रात के 11.30 बज रहे थे। मैंने मोबाइल जेब से निकाला और देखा कि उसे आखिरी कॉल कब थी?

‘लगभग एक घण्टा।’ पिछले एक घण्टे से यहाँ उसका इन्तजार कर रहा था।

संजय कुछ दिनों के लिए मुम्बई से बाहर था और पूरी एजेन्सी मैंने सम्हाली हुई थी। मेरी दिनचर्या इतनी तंग थी कि मुश्किल से ही मुझे उसके लिए वक्त मिला था। लेकिन उससे मिलना, उसे समझाना अब जरूरी हो चला था। इस बेवक्त की अनआफिशल मीटिंग के लिए मैंने अपने तीन दिन व्यर्थ किये थे और आज भी वो इतना वक्त लगा रही थी।

मैं यहाँ उसका इन्तजार कर रहा हूँ ये याद दिलाने के लिए दोबारा कॉल किया लेकिन उसने उठाया नहीं। शायद अपनी तरह की किसी लेट नाईट पार्टी में झूम रही होगी।

मैंने हार मान ली। मुझे वापस जाना था, उसे समझाना या उसका इन्तजार करना शायद मेरी बेवकूफी थी। मैंने बाहर आकर दरवाजे को छुआ ही था कि वो खुद ब खुद खुल गया।

‘हॉय!’ उसने उसी घमण्ड में कहा और अन्दर चली आयी। उसे पता था कि मैं यहाँ उसका इन्तजार कर रहा हूँ लेकिन फिर भी उसने थोड़ी भी तकलीफ नहीं की जल्द लौटने की।

बेहद थकी.... बेहद उन्मत्त.... निढाल। मैं सही था, वो किसी पार्टी से ही लौटी थी। अपना पर्स और सेन्डेल निकाल कर उसने जहाँ तहाँ फेंके। बिना कोई बल्ब आन किये वो चुपचाप सोफे पर बैठी एक सिगरेट फूँकने लगी।

बालों को उलझाते-सुलझाते-

‘तुम्हारे पास अब तक मेरे फ्लैट की चाबियाँ हैं?’

‘हाँ।’ मैंने अपनी चाबियों के गुच्छे में से एक चाबी अलग कर के उसे दे दी।

‘तो बताईये मिस्टर अंश सहाय, आपके लिए मैं क्या कर सकती हूँ?’ मुझे वो इस तरह देख रही थी जैसे झेल रही हो। मैंने उसकी फैलायी अफवाहों के बारे में मुश्किल से कुछ कहा ही था कि उसने बकना शुरू कर दिया।

उसकी बातों का कोई सिर पैर नहीं था हमेशा की तरह। मैं यहाँ मसला हल करने आया था इसलिए चुप रहा। वो अपनी भड़ास निकाल रही थी।

करीब बीस मिनट तक लगातार सिर्फ वो बोलती रही और फिर मैंने उसे जवाब देना शुरू किया!

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