ई-पुस्तकें >> फ्लर्ट फ्लर्टप्रतिमा खनका
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जिसका सच्चा प्यार भी शक के दायरे में रहता है। फ्लर्ट जिसकी किसी खूबी के चलते लोग उससे रिश्ते तो बना लेते हैं, लेकिन निभा नहीं पाते।
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जल्द ही संजय और जिया एक रिश्ते में बॅध गये। मैंने उसकी शादी में वैसे ही एन्जॉय किया, वैसे ही काम किया जैसे एक छोटे भाई को करना चाहिये। उसने भी मुझे कभी ये महसूस नहीं होने दिया कि मैं कोई गैर हूँ। यूँ तो संजय का अपने परिवार वालों से दूर तक कोई लेना देना बाकी नहीं था लेकिन मेरे कहने पर वो उनसे मिलने वहाँ गया इससे उनका रिश्ता पहले जितना तो नहीं लेकिन थोड़ा सुधर गया था।
संजय और उसके परिवार के लिए मैं यामिनी का शुक्रगुजार हमेशा ही रहूँगा क्योंकि उसने मुझे वो दिया था जो खरीदा नहीं जा सकता, कमाया नहीं जा सकता। वो सिर्फ भगवान ही दे सकता है या किस्मत से मिल सकता है। हमारे दो परिवार एक जैसे हो गये थे। संजय के पिताजी मुझे संजय से ज्यादा मानते थे और मेरी बेहद समझदार और दुनियादारी को मानने वाली मम्मी की सोच संजय से बहुत मिलती थी, ये बहुत खूबसूरत रिश्ते थे।
मैं बहुत राहत में था लगा कि जिन्दगी भले ही कुछ देर को भटक गयी थी लेकिन आखिर फिर सही राह पकड़ रही है.... लेकिन मैं गलत था।
संजय की शादी के एक हफ्ते बाद।
रात करीब 9 बजें मैं अपने फ्लैट में दाखिल हुआ। पिछले ना जाने कितने महीनों से मैं संजय के साथ उसी के फ्लैट में रह रहा था लेकिन अब उसकी जिन्दगी में चूँकि जिया आ चुकी थी, मुझे वहाँ से आना पड़ा। बीता वक्त वाकई किसी अच्छे सपने सा था और यहाँ अपने अकेलेपन में लौटना - उस ख्वाब से जागने जैसा।
अपना बैग ड्राईंग रूम में छोड़कर मैंने पूरे फ्लैट का जायजा लिया। ये आज भी उसी हाल में था जैसा मैं इसे छोड़ गया था... बिखरा, मैला! आज भी इसकी घुटी हवा में सिगरेट, शराब की मिटती सी गन्ध थी और एक खूशबू यामिनी की यादों की। ये आज भी उसी तरह सजा हुआ था जैसे कभी उसने सजाया था इसे। वो हर जगह महसूस हो रही थी। उसका एहसास हर जगह था। उसकी छुअन। उसकी आवाज अब भी सुन सकता था मैं, जैसे वो अब भी मेरे साथ हो।
कुछ देर के लिए मैं पलंग के एक कोने पर बैठा उसे महसूस करता रहा। उसे याद करता.... लेकिन कितनी देर?
मैं उठ गया! उसकी सारी तस्वींरें मैंने दीवारों से उतार दीं। अपने पलंग की जगह बदल डाली। हर वो कोना बदल दिया जिसे उसने बदला था। मैंने तब तक साँस ना ली जब तक सब कुछ उलट पलट ना कर दिया! एक जूनून मुझे झकझोरे जा रहा था!
आधी रात बीते। अपने थके से हाथ कमर पर रखकर मैं कमरे को चारों तरफ से देख रहा था। अब ये बदल चुका था.... शान्त था। अब ये किसी पुराने जख्म की शिकायत नहीं कर रहा था मुझसे।
काश! मैं अपने अन्दर का कमरा भी इसी तरह बदल पाता। काश!
मैं बिस्तर पर लेट गया, और ठीक उसी वक्त दरवाजे पर एक तेज दस्तक हुई।
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