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फ्लर्ट

प्रतिमा खनका

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :609
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9562
आईएसबीएन :9781613014950

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जिसका सच्चा प्यार भी शक के दायरे में रहता है। फ्लर्ट जिसकी किसी खूबी के चलते लोग उससे रिश्ते तो बना लेते हैं, लेकिन निभा नहीं पाते।

46

दो महीने बाद। शाम 6 बजे।


खिड़की के सहारे खड़े, मुस्कुराते हुए मैं किसी मैगजीन में कुछ पढ़ रहा था। एक लजीज आर्टिकल, मेरे और यामिनी की बेहद दिलकश सी तस्वीर के साथ, ये काफी पर्सनल था। जिसने ये भी छापा था वो सोनाली का करीबी दोस्त था और अब ये जाहिर था कि उसे किसने ये खबर दी होगी।

एक प्यारा सा चेहरा मेरी आँखों के सामने आ गया और मेरी मुस्कुराहट और बढ गयी। मैं भले ही सोनाली पर नाराज न हो सका लेकिन ये मेरे और यामिनी के लिए बबाल खड़ा कर देने के लिए काफी था।

मैंने धीरे से वो मैगजीन सेन्टर टेबल पर छोडी और यामिनी के पास चला गया। वो किसी छटपटाहट के साथ कमरे में यहाँ वहाँ चहलकदमी कर रही थी। मोबाइल उसके कान पर चिपका हुआ था।

डॉली, प्रीती और मेरे परिवार ने पहले ही मुझसे सवाल जवाब कर लिये थे और अब यामिनी की बारी थी अपने पति को चुप कराने की। वो झूठी सफाई, झूठे प्यार और झूठे वादों के साथ उसे जवाब दिये जा रही थी।

मम्मी हमेशा कहती थी कि झूठ की कोई उम्र नहीं होती। इसका कोई अस्तित्व नहीं होता और ये उन लोगों का हथियार है जो सच्चाई को थामने के काबिल नहीं होते। यामिनी ठीक उसी हथियार से लड़ने की कोशिश कर रही थी। हजारों बार मैं उसे समझा चुका था कि किसी एक तरफ हो जाये। मैं उसके पति से बात करने को तैयार था लेकिन उसने मेरी नहीं सुनी। उसने आग से खेलना बन्द नहीं किया और शायद उसी आग से आज उसके हाथ झुलस गये थे। उसने मोबाइल तो कुछ यूँ ही फेंका था!

मैं पहले ही जानता था कि सफाई देने से हर बार उलझन सुलझ नहीं जाती। हर बार की तरह एक बार फिर मैंने उसे समझाने की कोशिश की।

उस दिन वो वाकई बहुत बुरे मूड में थी।

‘आखिर तुम मेरे मुँह से सुनना क्या चाहते हो?’ वो चिल्ला पड़ी। बैचेनी से अपना माथा पकड़े वो बालकनी की तरफ जा रही थी कि मैंने उसका हाथ पकड़ा और ठण्डे लहजे में-

‘मैं कुछ सुनना नहीं चाहता बल्कि कहना चाहता हूँ। जो रास्ता तुमने चुना है उसकी कोई मंजिल नहीं है यामिनी।’

‘अंश प्लीज!’ उसने मुझे रोक दिया। ‘जब तक मैं यहाँ हूँ मैं कुछ और नहीं सोचना चाहती सिवाय तुम्हारे।’

‘और कब तक सोच पाओगी?’

मैंने उसे फिर चिढा दिया। गुस्से में कुछ देर उसे लफ्ज ही न मिले।

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