ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'हाँ...होगा...हम तो मस्तिष्क के निर्णय को नहीं मानते।'
'तो...?' 'अपनी आँखों से काम लेते हैं। देखा...किसी का कुछ भा गया और जीवन उस पर लगा दिया।'
'पुरुष जो ठहरे! बुद्धि के कच्चे, रूप का विश्वास करने वाले...आप लोग भला अंदर से संसार को क्या समझें!' माधवी ने यह बात विनोद के हृदय पर चोट लगाते हुए कही और चाय बनाने लगी।
तनिक-सी बात कहकर उसने विनोद के मन में हलचल उत्पन्न कर दी। सच ही तो है! यह भी तो उसका रूप और श्रृंगार देखकर ही स्वयं को भूल गया था। बुद्धि से काम न लेते हुए वह उसकी भावनाओं से खेलता रहा। उसी समय उसकी आँखों के साममे कामिनी की तस्वीर खिंच गई जो उसके बच्चे को छाती से लगाए उसकी प्रतीक्षा में आँखें बिछाए खड़ी थी। उसे यों लगा मानो आकाश में बिजली कौंधी हो और उसके हृदय की गहराइयों में उतर गई हो। उसका रोआँ-रोआँ काँप गया।
माधवी ने चाय का गर्म प्याला उसकी ओर बढ़ाया। चाय में उठती हुई भाप वातावरण में गुम हो रही थी। भाप की ऐसी ही एक रेखा उसने माधवी की आँखों में भी देखी। उसकी पलकों में से तरुणाई का आनन्द छनकर छलक रहा था। वह अपने मन की पीड़ा भूल गया और प्याला हाथ में लेते हुए बोला-'तुम नहीं पियोगी क्या?'
'आप लीजिए...मैं और बनाती हूँ।'
चाय के तुरन्त पश्चात् वे यात्रा की तैयारी में लग गए। उन्हें कलकत्ता जाने वाली गाड़ी पकड़नी थी, पर स्टेशन पर पहुंचते ही माधवी ने उसे पटना और रंगून तार देने के लिए कह दिया। उसकी मृत्यु की सूचना पाकर सब लोग शोक मना रहे होंगे। माधवी ने उसे अपने लिए भी तीसरा तार लाहौर देने के लिए कहा तो विनोद बोला-'किसे दूं?'
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