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ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट

एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


सवेरे जब दार्जिलिंग की हिमपूर्ण चोटियों को सूर्य की नूतन किरणों ने छुआ तो चारों ओर सोना सा बिखर गया। शीतल वातावरण में कुछ गर्मी ने प्रवेश आरम्भ कर दिया। उनके कमरे की खिड़की अभी तक खुली थी। माधवी चौखट का सहारा लेकर दूर कचनजंघा की बर्फ से ढकी चोटियों को देख रही थी। कितना मनोहर दृश्य था! उसका मन एक विचित्र आनन्द में गद्गद हो उठा। उसने चाहा कि वह उस अजनबी को भी, जो आते ही उसके जीवन में खो गया था, इस आनन्द में सम्मिलित कर ले। परन्तु वह अभी तक सो रहा था। यों लग रहा था जैसे आज बड़े समय पश्चात् उसे वह मधुर नींद मिली है।

उसे अपने सुन्दर स्वप्नों से जगाना माधवी ने उचित न समझा और अकेली खड़ी इस प्राकृतिक दृश्य का आनंद उठाती रही। कभी-कभी वह कनखियों से विनोद की ओर देख लेती। वह अपने अन्तर में एक अज्ञात प्रसन्नता और आँखों में चमक अनुभव कर रही थी।

ब्वाय चाय लाया और साथ ही आज का अखबार भी। माधवी अखबार को लेकर खिड़की में जा खड़ी हुई।

अखबार खोलते ही उसकी हल्की-सी चीख निकल गई। आश्चर्य में उसकी आँखें अखबार के पहले पन्ने पर जम गईं जहाँ उसकी, विनोद की और कई व्यक्तियों की तस्वीरें और पते छपे हुए थे।

उसने झट से विनोद को झंझोड़कर जगाया और अखबार उसके सामने रखती हुई बोली-'यह देखो!'

'क्या हुआ?' उसने घबराहट से आँखें मलते हुए पूछा।

'हमको तो जीवित ही मृत्यु को सौंप दिया गया है!' काँपते हुए स्वर में वह बोली।

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