ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
|
8 पाठकों को प्रिय 429 पाठक हैं |
'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
3
दिन बदल गए। नागिन-जैसी काली रातें सुहावनी बन गईं। सवेरे की नूतन किरणें जीवन का संदेश लेकर आने लगीं और ढलकी हुई शामें दोनों की थकान ले जातीं।
दोनों ने एक-दूसरे के मन की धड़कनों को सुना, समझा और किसी अज्ञात शक्ति के अधीन एक-दूसरे की ओर आकर्षित हो गए। धर्मशाला की सुन्दर मौन घाटियों ने दोनों को अपने आँचल में बांध लिया।
इस सुन्दर क्षणों में कभी-कभार जब विनोद अकेला बैठता तो उसे अपने मन का यह परिवर्तन विचित्र-सा लगने लगता। उसे कुछ समझ न आता कि कौन-सा लुभाव खींचकर उसे कामिनी के निकट लिए जा रहा है?
महायुद्ध पश्चिम से पूर्व की ओर पहुंच चुका था। बर्मा की सीमा पर जापानियों और अंग्रेजों में गुरिल्ला लड़ाई हो रही थी। भरती होने के लिए सबको बुलावे आने लगे। सिपाही, डॉक्टर, इंजीनियर इत्यादि की आवश्यकता ने भरती के दफ्तर भरने आरम्भ कर दिए।
इसी विषय में विनोद को भी संदेश आया। सिविल नौकरी से कहीं अधिक प्रतिष्ठा और उन्नति उसे फौज की नौकरी में प्राप्त होगी। पहले तो उसने सोचा कि कामिनी से परामर्श कर ले; परन्तु यह विचारकर कि वह उसे युद्ध में जाने देने पर कभी सहमत न होगी, उसने सरकार का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और उसे बर्मा जाने की अनुमति मिल गई।
|