ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
न जाने कितनी देर तक वह यों ही अनमनी-सी दशा में बैठी रही। उसका शरीर निष्प्राण हुआ जा रहा था। कुछ देर पहले वह स्वयं को विनोद और रमन के कितना निकट देख रही थी और जब वह इनमें इतना अन्तर पाने लगी जिसे पूरा करना इतना सरल न था।
माधवी घर पहुँची तो अँधेरा काफी फैल चुका था। विनोद बरामदे में खड़ा-खड़ा बेचैनी से उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। आज वह किसी अज्ञात भय से घबरा रहा था। माधवी को गम्भीर और चुप देख कर उसके मन में पीड़ा-सी उठी। उसने बढ़कर मोटर का किवाड़ खोला और माधवी को सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाया; परन्तु माधवी ने उसका हाथ झटक दिया और सिर नीचा किए, बिना कुछ बोले भीतर जाने लगी।
'क्यों? क्या हुआ?'
'कुछ नहीं।'
'इतनी देर कहाँ?'
'रमन के यहाँ।'
'ओह!' वह सुनते ही काँप गया। माधवी ने उसके इस कम्पन को बड़े ध्यान से देखा। विनोद उसकी दृष्टि को काटता हुआ झट से बोला, 'मैं समझा, कहीं गाड़ी को कुछ हो गया है।'
'गाड़ी को तो नहीं, परन्तु मुझे...'
'क्या हुआ तुम्हें?'
'हृदय का दौरा।'
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