ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'जी...उसके बाद गाड़ी जो कोई न थी।'
'तो क्या उन्होंने कोई नई बात सोची है अब?'
कामिनी ने कोई उत्तर न दिया। अपने पिताजी के सम्बन्ध में ऐसे शब्द उसे अच्छे न लगे; परन्तु उसने धैर्य से काम लिया और बोली, 'लाइए कोट और मुंह-हाथ धो लीजिए।'
विनोद ने उसकी बात सुनकर नथुने फुफकारते हुए भवें चढ़ा लीं और चुपचाप दूसरे कमरे में चला गया। कामिनी ने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया था कि चाहे कुछ भी हो, अब इस घर से कभी न निकलेगी। वह अपने माथे पर क्रोध की एक रेखा भी न लाएगी। उसे विश्वास था कि वह एक-न-एक दिन अवश्य उसके पत्थर-हृदय को मोम बना लेगी, उसकी आंखों में घृणा के स्थान पर प्रेम-रसभर देगी।
जब वह मुँह-हाथ धोकर गोल कमरे में आ बैठा तो कामिनी ही चाय की ट्रे उठाकर भीतर आई। विनोद ने एक कठोर दृष्टि उसपर डाली और मुंह मोड़ लिया।
चाय मेज पर लगाकर वह भीतर चली गई। विनोद ने देखा, आज चाय के अतिरिक्त वहां दो-चार प्लेटें और भी थी जिनमें मिठाई, नमकीन और फल थे। ये चीजें शायद वह घर से लाई थी।
जब नौकर सैर के जूते लेकर भीतर आया तो कमरे में किसी और को न पाकर उसने धीरे से उससे पूछा-'अतिथि ने कुछ खाया?'
'नहीं साहब, बीबीजी ने सवेरे से कुछ नहीं खाया।'
'ओह।'
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