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ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट

एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


'तो अच्छा होगा...सब जलकर राख हो जाएँ...मन की ज्वाला तो शांत हो जाएगी!'

विनोद ने भाभी की ओर देखा। उसकी आँखों में आँसू थे। अपने मन की पीड़ा कम करने के लिए उसके गले से जा लगा और बालकों की भाँति फूट-फूटकर रोने लगा।

सवेरे से दोपहर हुई और फिर साँझ। घर में प्रसन्नता के स्थान पर शोक का वातावरण बना रहा। बधाई देने के लिए आने वालों को भाभी ने बाहर ही से टालकर लौटा दिया। वह न चाहती कि आने वाले उसके घाव को कुरेदें।

एक दिन विनोद के ससुराल वाले लड़की को फेरे के लिए कह। उसके साथ दूल्हे का जाना भी आवश्यक था; परन्तु विनोद जाने से इन्कार कर दिया और उसे नौकरानी के साथ भेजने के लिए कह दिया।

परन्तु यह कैसे हो सकता था? पहली बार तो दुल्हिन को दूल्हा ही साथ ले जाता है। घर में कुहराम मच गया। यह अपशकुन कैसे हो? पर बहुतेरा समझाने पर भी विनोद न माना। वह क्रोध से पागल हुआ जा रहा था। और ऐसे में उसे अधिक समझाना भी व्यर्थ था।

शाम हो गई; परन्तु वह अपने कमरे से बाहर न निकला। उसकी ससुराल से कामिनी की चंद सहेलियाँ उसे साथ लेने आईं। जब उनमें से कुछ विनोद को मनाने आईं तो उसने बात करना उचित न समझा; पर फिर भी चोर-दृष्टि से उन सबको देखता रहा। उसने देखा कि उनमें से एक लड़की उसके निकट नहीं आई थी; परन्तु सीढ़ियों से लगी उसे देखे जा रही थी। उसे वह मुखड़ा कुछ देखा हुआ अनुभव हुआ। उसने चाहा कि वह ध्यानपूर्वक उसे देखे; परन्तु वह झट से मुँह मोड़कर कामिनी के कमरे की ओर चली गई।

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