ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
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रंगून के हवाई अड्डे पर कलकत्ता जाने वाला जहाज़ तैयार खड़ा था। उसके उड़ने में चंद मिनट शेष थे और इस बात की सूचना लाउड-स्पीकरों द्वारा यात्रियों को दी जा रही थी।
विनोद उसी जहाज़ की एक सीट पर बैठा खिड़की से बाहर का दृश्य देख रहा था। हवाई अडडे का वेटिंग-हॉल सैनिकों और अफसरों से भरा था। सभी को शीघ्र हिन्दुस्तान जाने की उत्सुकता थी। कितने ही सीट न मिलने से निराश दीख पड़ते थे। विनोद अपने-आपको भाग्यवान् समझ रहा था और मन-ही-मन स्टेशन-ऑफिसर मिस्टर सुलेमान को धन्यवाद दे रहा था जिन्होंने इतनी शीघ्र उसके लिए सीट का प्रबन्ध कर दिया था।
यह वह समय था जब द्वितीय महायुद्ध का मुँह बर्मा और मलाया की सीमाओं की ओर मुड़ चुका था। विनोद सेना में भरती हो गया था और आज पूरे तीन वर्ष पश्चात् अवकाश लेकर लौट रहा था।
वह एक बडा इंजीनियर था। बर्मा और आसाम की पहाड़ी नदियों पर जितने भी अस्थायी पुल बनाए गए थे, उन सबमें उसका हाथ था। युद्ध में वीरता के उपलक्ष्य में उसने कई पदक प्राप्त किए थे जो इस समय उसकी वर्दी से टँके हुए तनिक-सी हलचल से सर-सराने लगते।
'शायद यह आपका...!' एक पतली सुरीली ध्वनि ने विनोद के विचारों के ताँते को एकाएक तोड़ दिया और उसने मुड़कर अपनी साथ वाली सीट की ओर देखा जहाँ वह सुरीली ध्वनि वाली महिला बैठना चाहती थी। उसके हाथ में विनोद का पुराना मिलिट्री हैट था जो उसने बैठते समय असावधानी से उतारकर साथ वाली सीट पर रख दिया था।
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