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धर्म रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559
आईएसबीएन :9781613013472

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


अनेक बार सहज ज्ञान को अतीन्द्रियबोध कह दिया जाता है और साथ ही भविष्यवक्ता बनने का झूठा दावा भी किया जाता है। एक निर्बोध या अधोंन्मत आदमी समझता है कि उसके दिमाग में जो पागलपन है, वह अतीन्द्रिय ज्ञान है और वह चाहता है कि लोग उसका अनुसरण करें। संसार में अति परस्परविरोधी युक्तिहीन जो अनाप-शनाप प्रचारित हुआ है, वह केवल पागलों के विकृत मस्तिष्कों के सहज-वृत्तिक अनर्गल प्रलाप को अन्तःप्रेरणा (अर्थात् अतीन्द्रिय बोध) की अभिव्यक्ति का ढोंग रचने का प्रयास मात्र है।

प्रकृत शिक्षा का प्रथम लक्षण यह होना चाहिए कि वह किसी प्रकार शक्ति-विरोधी न हो। आपको इससे ज्ञान हो जायगा कि ऊपर लिखे हुए सब योग इसी भित्ती पर प्रतिष्ठित हैं। पहले राजयोग की बात लीजिये। राजयोग मनस्तत्व विषय का योग है - मनस्तत्व के विश्लेषण से ही एकत्व को प्राप्त किया जा सकता है। विषय खूब बड़ा है; इसलिए मैं अभी इस योग के आभ्यन्तरीण मूल भाव को आप लोगों के सामने व्यक्त करता हूँ। हम लोगों के लिए ज्ञानलाभ का केवल एक ही उपाय है। निम्नतम मनुष्य से लेकर सर्वोच्च 'योगी' तक को उसी उपाय का अवलम्बन करना पड़ता है। वह उपाय है एकाग्रता।

रसायनविद् जब अपनी प्रयोगशाला (Laboratory) में काम करता है, तब वह अपने मन की सारी शक्ति को एकत्र कर लेता है - केन्द्रीभूत कर लेता है, और उस केन्द्रीभूत शक्ति का मूल-भूतों के ऊपर प्रयोग करते ही, वे सब विश्लेषित हो जाते हैं और इस प्रकार वे उसका ज्ञान लाभ करने में समर्थ होते हैं। ज्योतिर्विद् भी अपनी समग्र मनःशक्ति को एकीभूत कर - केन्द्रीभूत कर - दूरवीक्षण यन्त्र द्वारा वस्तु पर प्रयोग करते हैं, जिससे घूमनेवाले तारे और ग्रहमण्डल उनके निकट अपने रहस्य उद्घाटित करते हैं। चाहे विद्वान् अध्यापक हो, चाहे मेधावी छात्र हो, चाहे अन्य कोई भी हो, यदि वह किसी विषय को जानने की चेष्टा कर रहा है, तो उसको उपरोक्त प्रथा से ही काम लेना पड़ेगा।

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