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धर्म रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559
आईएसबीएन :9781613013472

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


संसार में जितने प्रकार की उपासना-प्रणालियाँ प्रचलित हैं, उन सब का यदि हम विश्लेषण करें, तो हमें मालूम होगा कि नितान्त असभ्य जातियाँ भूत-प्रेतादि की उपासना करती हैं। पूर्व पुरुषों की आत्माओं की उपासना, सर्प-पूजा, जातीय देवविशेष की उपासना - इन सबको लोग क्यों करते हैं? कारण यह है कि लोग समझते हैं कि, उक्त देवादि पुरुषगण किसी अज्ञात रूप से हमारी स्वाधीनता में बाधा डालते हैं। इसी कारण इन सब पुरुषों को वे सन्तुष्ट करने की चेष्टा करते हैं, जिससे वे उनका किसी प्रकार अनिष्ट न कर सकें, अर्थात् जिससे वे अधिकतर स्वाधीनता लाभ कर सकें। इन सब श्रेष्ठ पुरुषों की पूजा कर उनको सन्तुष्ट करके वरस्वरूप उनसे नाना प्रकार की काम्य वस्तुओं की वे आकांक्षा करते हैं। जिन सबको अपने प्रयत्न से लाभ करना मनुष्य को उचित है, वे उन्हें देवता के अनुग्रह से पाना चाहते हैं।

जो कुछ भी हो, मतलब यह है कि इन सब उपासना-प्रणालियों की आलोचना से यही उपलब्धि होती है कि समग्र संसार कुछ चमत्कार की आशा कर रहा है। यह आशा कभी भी हमें नहीं छोड़ती और हम चाहे जितनी चेष्टा क्यों न करें, हम सब केवल अद्भुत और आश्चर्यजनक की ओर ही दौड़ रहे हैं। जीवन के अर्थ और उसके रहस्य के अविराम अनुसन्धान को छोड़ हमारे मन का और क्या अर्थ होता है? हम कहेंगे कि अशिक्षित लोग ही इन बातों के पीछे दौड़ रहे हैं, परन्तु वे भी क्यों ऐसा करते हैं, इस प्रश्न से तो सहज ही हम छुटकारा नहीं पा सकते। बाइबिल में देखा जाता है कि यहूदी लोग ईसा मसीह के निकट निदर्शनस्वरूप एक अलौकिक घटना देखने की आकांक्षा प्रकाश करते थे। केवल यहूदी ही क्यों, समग्र जगत् ही हजारों वर्षों से लेकर इस प्रकार अलौकिक घटना देखने की प्रत्याशा करता आ रहा है और देखिये, समग्र जगत् में स्व के भीतर ही एक असन्तोष का भाव दिखायी पड़ता है।

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