ई-पुस्तकें >> धर्म रहस्य धर्म रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
आप लोगों को थोड़ी देर के लिए शब्दजाल से बाहर आना होगा। हम सभी लोग बाल्यकाल से ही प्रेम, शान्ति, मैत्री, साम्य, सार्वजनीन भ्रातृभाव प्रभृति अनेक बातें सुनते आ रहे हैं। किन्तु इन सभी बातों में से हमारे निकट कितनी ही निरर्थक हो जाती हैं। हम लोग उन्हें तोते की तरह रट लेते हैं और यह मानो हम लोगों का स्वभाव हो गया है। हम ऐसा किये बिना रह नहीं सकते।
जिन सब महापुरुषों ने पहले अपने हृदय में इन महान् तत्वों की उपलब्धि की थी, उन्हीं ने इन शब्दों की रचना की है। उस समय बहुत से लोग इसका अर्थ समझते थे। आगे चलकर मूर्ख लोगों ने इन सब बातों को लेकर उनसे खिलवाड़ आरम्भ कर दिया, और अन्त में धर्म को केवल बातों की मारपेंच कर दिया - लोग इस बात को भूल गये कि धर्म जीवन में परिणत करने की वस्तु है। धर्म अब 'पैतृक धर्म', 'जातीय धर्म', 'देशी धर्म' इत्यादि के रूप में परिणत हो गया है। अन्त में किसी धर्म में विश्वास करना देशाभिमान का एक अंग हो जाता है और देशाभिमान सदा एकदेशीय होता है। विभिन्न धर्मों में सामंजस्य विधान करना बहुत ही कठिन काम है। फिर भी हम इस धर्मसमन्वय-समस्या की आलोचना करेंगे।
हम देखते हैं कि प्रत्येक धर्म के तीन भाग होते हैं। मैं अवश्य ही प्रसिद्ध और प्रचलित धर्मों की बात करता हूँ। पहला है, दार्शनिक भाग - इसमें उस धर्म का सारा विषय अर्थात् मूलतत्व, उद्देश्य और उनकी प्राप्ति के उपाय निहित होते हैं। दूसरा है, पौराणिक भाग - यह स्थूल उदाहरणों के द्वारा दार्शनिक भाग को स्पष्ट करता है। इसमें मनुष्यों एवं अलौकिक पुरुषों के जीवन के उपाख्यान आदि होते हैं। इसमें सूक्ष्म दार्शनिक तत्व, मनुष्यों या अतिप्राकृतिक पुरुषों के थोड़े-बहुत काल्पनिक जीवन के उदाहरणों द्वारा समझाये जाते हैं। तीसरा है, आनुष्ठानिक भाग - यह धर्म का स्थूल भाग है। इसमें पूजा-पद्धति, आचार, अनुष्ठान, विविध शारीरिक अंग-विन्यास, पुष्प, धूप, धूनि आदि नाना प्रकार की इन्द्रियग्राह्य वस्तुएँ हैं। इन सब को मिलाकर आनुष्ठानिक धर्म का संगठन होता है।
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