ई-पुस्तकें >> धर्म रहस्य धर्म रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
सार्वभौमिक धर्म का आदर्श
(उसमें विभिन्न प्रकार की प्रवृत्तियों और पद्धतियों का समावेश किस प्रकार होना चाहिए)
हमारी इन्द्रियाँ चाहे किसी वस्तु को क्यों न ग्रहण करें, हमारा मन चाहे किसी विषय की कल्पना क्यों न करे, सभी जगह हम दो शक्तियों की क्रिया-प्रतिक्रिया देखते हैं। ये एक दूसरे के विरुद्ध काम करती हैं और हमारे चारों ओर बाह्य जगत् में दिखायी देनेवाली तथा अन्तर्जगत् में उपलब्ध होनेवाली समस्त जटिल घटनाओं की निरन्तर क्रीड़ा का कारण हैं। ये ही दो विपरीत शक्तियाँ बाह्य जगत् में आकर्षण विकर्षण अथवा केन्द्राभिमुख केन्द्र-विमुख शक्तियों के रूप से, और अन्तर्जगत् में राग-द्वेष या शुभाशुभ के रूप से प्रकाशित होती हैं। हम कितनी ही चीजों को अपने सामने से हटा देते हैं और कितनी ही को अपने सामने खींच लाते हैं, किसी की ओर आकृष्ट होते हैं और किसी से दूर रहना चाहते हैं। हमारे जीवन में ऐसा अनेक बार होता है कि हमारा मन किसी की ओर हमें बलात् आकृष्ट करता है, पर इस आकर्षण का कारण हमें ज्ञात नहीं होता, और किसी समय किसी आदमी को देखने ही से बिना किसी कारण मन भागने की इच्छा करता है। इस बात का अनुभव सभी को है। और इस शक्ति का कार्यक्षेत्र जितना ऊँचा होगा, इन दो विपरीत शक्तियों का प्रभाव उतना ही तीव्र और परिस्फुट होगा। धर्म ही मनुष्य के चिन्तन और जीवन का सब से उच्च स्तर है और हम देखते हैं कि धर्मजगत् में ही इन दो शक्तियों की क्रिया सब से अधिक परिस्फुट हुई है। मानव जाति को जिस तीव्रतम प्रेम का ज्ञान है, वह धर्म से ही उत्पन्न हुआ है। और वह घोरतम पैशाचिक विद्वेष का भाव जिसे मानव जाति ने कभी अनुभव किया है, उसका भी जन्मस्थान धर्म ही है। संसार ने कभी भी जो महत्तम शान्ति की वाणी सुनी है, वह धर्म-राज्य के लोगों के मुख से ही निकली हुई है और जगत् ने कभी भी जो तीव्रतम निन्दा और अभिशाप सुना है, वह भी धर्म-राज्य के मनुष्यों के मुख से उच्चारित हुआ है। किसी धर्म का उद्देश्य जितना उच्चतर है, उसकी कार्यप्रणाली जितनी सूक्ष्म है, उसकी क्रियाशीलता भी उतनी ही अद्भुत होती है।
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