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भक्तियोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9558
आईएसबीएन :9781613013427

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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान


प्रत्येक व्यक्ति के उच्चतम आदर्श को ही ईश्वर कहते हैं। कोई चाहे ज्ञानी हो, चाहे अज्ञानी, साधु हो या पापी, पुरुष हो अथवा स्त्री, शिक्षित हो अथवा अशिक्षित, प्रत्येक दशा में मनुष्यमात्र का परमोच्च आदर्श ईश्वर ही है। सौन्दर्य, महानता और शक्ति के उच्चतम आदर्शों के योग में ही हमें प्रेममय एवं प्रेमास्पद भगवान का पूर्णतम भाव मिलता है। स्वभावत: ही ये आदर्श किसी न किसी रूप में प्रत्येक व्यक्ति के मन में वर्तमान रहते हैं। वे मानो हमारे मन के अंग या अंश विशेष हैं। उन आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में परिणत करने के जो सब प्रयत्न हैं, वे ही मानवी प्रकृति की नानाविध क्रियाओं के रूप में प्रकट होते हैं।

विभिन्न जीवात्माओं में जो सब भिन्न भिन्न आदर्श निहित हैं, वे बाहर आकर ठोस रूप धारण करने का सतत प्रयत्न कर रहे हैं, और इसके फलस्वरूप हम अपने चारों ओर समाज में नाना प्रकार की गतियाँ और हलचल देखते हैं। जो कुछ भीतर है, वही बाहर आने का प्रयत्न करता है। आदर्श का यह नित्य प्रबल प्रभाव ही एक ऐसी कार्यकारी शक्ति है, जो मानव-जीवन में सतत क्रियाशील है। हो सकता है, सैकड़ों जन्म के बाद, हजारों वर्ष प्रयत्न करने के पश्चात् मनुष्य समझे कि अपना अभ्यन्तरस्थ आदर्श बाहरी वातावरण और अवस्थाओं के साथ पूरी तरह मेल नहीं खा सकता। और जब वह यह समझ जाता है, तब बाहरी जगत् को अपने आदर्श के अनुसार गढ़ने की फिर अधिक चेष्टा नहीं करता। तब वह इस प्रकार के सारे प्रयत्न छोड़कर प्रेम की उच्चतम भूमि से, स्वयं आदर्श की आदर्श-रूप से उपासना करने लगता है। यह पूर्ण आदर्श अपने में अन्य सब छोटे, छोटे आदर्शों को समा लेता है।

सभी लोग इस बात की सत्यता स्वीकार करते हैं कि प्रेमी कुरूपता में भी रूप के दर्शन करता है। बाहर के लोग कह सकते हैं कि प्रेम गलत दिशा में जा रहा है - अपात्र में अर्पित हो रहा है; पर जो प्रेमी है, उसे तो अपने प्रेमास्पद में कहीं कोई कुरूपता दिखायी ही नहीं पड़ती, वह तो उसमें रूप ही रूप देखता है। चाहे रूपवती स्वर्ग की अप्सरा हो, चाहे कुरूप और भोंडी स्त्री, वास्तव में हमारे प्रेम के आधार तो मानो कुछ केन्द्र हैं, जिनके चारों ओर हमारे आदर्श घनीभूत होकर रहते हैं।

संसार साधारणत: किसकी उपासना करता है? - अवश्य उच्चतम भक्त और प्रेमी के सर्वावगाही पूर्ण आदर्श की नहीं।

स्त्री-पुरुष साधारणत: उसी आदर्श की उपासना करते हैं, जो उनके अपने हृदय में है। प्रत्येक व्यक्ति अपना अपना आदर्श बाहर लाकर उसके सम्मुख भूमिष्ठ हो प्रणाम करता है। इसीलिए हम देखते हैं कि जो लोग निर्दयी और खूनी होते हैं, वे एक रक्तपिपासु ईश्वर की ही कल्पना करते तथा उसे भजते हैं, क्योंकि वे अपने सर्वोच्च आदर्श की ही उपासना कर सकते हैं। और वास्तव में वह अन्य लोगों के आदर्श से बहुत भिन्न है।

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