ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
सब प्रकार के वैराग्यों में भक्तियोगी का वैराग्य सब से स्वाभाविक है। उसमें न कोई कठोरता है, न कुछ छोड़ना पड़ता है, न हमें अपने आपसे कोई चीज छोड़नी पड़ती है, और न बलपूर्वक किसी चीज से हमें अपने आपको अलग ही करना पड़ता है। भक्त का त्याग तो अत्यन्त सहज और स्वाभाविक होता है। इस प्रकार का त्याग, बहुत-कुछ विकृत रूप में, हम प्रतिदिन अपने चारों ओर देखते हैं।
उदाहरणार्थ एक मनुष्य एक सी से प्रेम करता हैं। कुछ समय बाद वह दूसरी स्त्री से प्रेम करने लगता है और पहली स्त्री को छोड़ देता है। वह पहली स्त्री धीरे धीरे उसके मन से पूर्णतया चली जाती है और उस मनुष्य को उसकी याद तक नहीं आती - उस स्त्री का अभाव तक उसे अब महसूस नहीं होता। एक स्त्री एक मनुष्य से प्रेम करती है; कुछ दिनों बाद वह दूसरे मनुष्य से प्रेम करने लगती है और पहला आदमी उसके मन से सहज ही उतर जाता है। किसी व्यक्ति को अपने शहर से प्यार होता है। फिर वह अपने देश को प्यार करने लगता है और तब उसका अपने उस छोटे से शहर के प्रति उत्कट प्रेम धीरे धीरे, स्वाभाविक रूप से चला जाता है।' फिर जब वही मनुष्य सारे संसार को प्यार करने लगता है, तब उसका स्वदेशानुराग, अपने देश के प्रति प्रबल और उन्मत्त प्रेम धीरे धीरे चला जाता है। इससे उसे कोई कष्ट नहीं होता। यह भाव दूर करने के लिए उसे किसी प्रकार की जोर-जबरदस्ती नहीं करनी पड़ती।
एक अशिक्षित मनुष्य इन्द्रिय-सुखों में उन्मत्त रहता है। जैसे-जैसे वह शिक्षित होता जाता है, वैसे-वैसे ज्ञान चर्चा में उसे अधिक सुख मिलने लगता है, और उसके विषय-भोग भी धीरे धीरे कम होते जाते हैं। एक कुत्ता अथवा भेड़िया जितनी रुचि से अपना भोजन करता है, उतना आनन्द किसी मनुष्य को अपने भोजन में नहीं आता। परन्तु जो आनन्द मनुष्य को बुद्धि और बौद्धिक कार्यों से प्राप्त होता है उसका अनुभव एक कुत्ता कभी नहीं कर सकता। पहले-पहल इन्द्रियों से सुख होता है; परन्तु ज्यों ज्यों प्राणी उच्चतर अवस्थाओं को प्राप्त होता जाता है, त्यों त्यों इन्द्रियजन्य सुखों में उसकी आसक्ति कम होती जाती है।
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