ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
एक पक्षी के उड़ने के लिए तीन अंगों की आवश्यकता होती है - दो पंख और पतवारस्वरूप एक पूँछ। ज्ञान और भक्ति मानो दो पंख है और योग पूँछ, जो सामंजस्य बनाये रखता है। जो इन तीनों साधना प्रणालियों का एक साथ, सामंजस्य-सहित अनुष्ठान नहीं कर सकते और इसलिए केवल भक्ति को अपने मार्ग के रूप में अपना लेते हैं, उन्हें यह सदैव स्मरण रखना आवश्यक है कि यद्यपि बाह्य अनुष्ठान और क्रियाकलाप आरम्भिक दशा में नितान्त आवश्यक है फिर भी भगवान के प्रति प्रगाढ़ प्रेम उत्पन्न कर देने के अतिरिक्त उनकी और कोई उपयोगिता नहीं।
यद्यपि ज्ञान और भक्ति दोनों ही मार्गों के आचार्यों का भक्ति के प्रभाव में विश्वास है, फिर भी उन दोनों में कुछ थोड़ा सा मतभेद है। ज्ञानी की दृष्टि में भक्ति मुक्ति का एक साधन मात्र है, पर भक्त के लिए वह साधन भी है और साध्य भी। मेरी दृष्टि में तो यह भेद नाम मात्र का है। वास्तव में, जब भक्ति को हम एक साधन के रूप में लेते हैं, तो उसका अर्थ केवल निम्न स्तर की उपासना होता है। और यह निम्न स्तर की उपासना ही आगे चलकर 'परा भक्ति’ में परिणत हो जाती है। ज्ञानी और भक्त दोनों ही अपनी- अपनी साधनाप्रणाली पर विशेष जोर देते हैं; वे यह भूल जाते हैं कि पूर्ण भक्ति के उदय होने से पूर्ण ज्ञान बिना माँगे ही प्राप्त हो जाता है और इसी प्रकार पूर्ण ज्ञान के साथ पूर्ण भक्ति भी आप ही आ जाती है।
इस बात को ध्यान में रखते हुए हम अब यह समझने का प्रयत्न करें कि इस विषय में महान् वेदान्त-भाष्यकारों का क्या कथन है। 'आवृत्तिरसकृदुपदेशात्’ सूत्र की व्याख्या करते हुए भगवान शंकराचार्य कहते है, ''लोग ऐसा कहते हैं, 'वह गुरु का भक्त है, वह राजा का भक्त है।' और वे यह बात उस व्यक्ति को सम्बोधित कर कहते हैं, जो गुरु या राजा का अनुसरण करता है और इस प्रकार यह अनुसरण ही जिसके जीवन का ध्येय है। इस प्रकार, जब वे कहते हैं, 'एक पतिव्रता स्त्री अपने विदेश- गये पति का ध्यान करती है', तो यहाँ भी एक प्रकार से उत्कण्ठा-युक्त निरन्तर स्मृति को ही लक्ष्य किया गया है।'' शंकराचार्य के मतानुसार यही भक्ति है।
तथा हि लोके गुरुम् उपास्ते, राजानम् उपास्ते इति च यः तात्पर्येण गुरु-आदीन् अनुवर्तते, सः एवम् उच्चते। तथा ध्यायति प्रोषितनाथा पतिम् इति या निरन्तरस्मरणा पतिं प्रति सोत्कंठा सा एवम् अभिधीयते। - ब्रह्मसूत्र, शांकर भाष्य, 4/1/1)
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