लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> भक्तियोग

भक्तियोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9558
आईएसबीएन :9781613013427

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

283 पाठक हैं

स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान


शास्त्र यह भी कहते हैं कि अन्य जनों की अणिमादि शक्तियाँ ईश्वर की उपासना तथा ईश्वर के अन्वेषण से ही प्राप्त होती हैं। ये शक्तियाँ असीम नहीं हैं। अतएव, जगन्नियतृत्व में उन लोगों का कोई स्थान नहीं। फिर वे अपने मन का पृथक् अस्तित्व बनाये रखते हैं, इसलिए यह सम्भव है कि उनकी इच्छाएँ अलग अलग हों। हो सकता है कि एक सृष्टि की इच्छा करे, तो दूसरा विनाश की। यह द्वन्द्व दूर करने का एकमात्र उपाय यही है कि वे सब इच्छाएँ अन्य किसी एक इच्छा के अधीन कर दी जायें। अत: सिद्धान्त यह निकला कि मुक्तात्माओं की इच्छाएँ परमेश्वर की इच्छा के अधीन हैं।'' अतएव भक्ति केवल सगुण ब्रह्म के प्रति की जा सकती है।

''देहाभिमानियों को अव्यक्त गति कठिनता से प्राप्त होती है।'' हमारे स्वभावरूपी स्रोत के साथ सामंजस्य रखते हुए भक्ति प्रवाहित होती है। यह सत्य है कि ब्रह्म के मानवी भाव के अतिरिक्त हम किसी दूसरे भाव की धारणा नहीं कर सकते। पर क्या यही बात हमारी ज्ञात प्रत्येक वस्तु के सम्बन्ध में भी नहीं घटती? संसार के सर्वश्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक भगवान कपिल ने सदियों पहले यह दर्शा दिया था कि हमारे समस्त बाह्य और आन्तरिक विषय-ज्ञानों और धारणाओं में मानवी ज्ञान एक उपादान है। अपने शरीर से लेकर ईश्वर तक यदि हम विचार करें, तो प्रतीत होगा कि हमारे अनुभव की प्रत्येक वस्तु दो बातों का मिश्रण है - एक है यह मानवी ज्ञान और दूसरी है एक अन्य वस्तु - फिर यह अन्य वस्तु चाहे जो हो। इस अवश्यम्भावी मिश्रण को ही हम साधारणतया 'सत्य' समझा करते हैं। और सचमुच, आज या भविष्य में, मानव-मन के लिए सत्य का ज्ञान जहाँ तक सम्भव है, वह इसके अतिरिक्त और अधिक कुछ नहीं। अतएव यह कहना कि ईश्वर मानव- धर्मवाला होने के कारण असत्य है, निरी मूर्खता है। यह बहुत-कुछ पाश्चात्य विज्ञानवाद (Idealism) और सर्वास्तित्ववाद (Realism) के झगड़े के सदृश है। यह सारा झगड़ा केवल इस 'सत्य' शब्द के उलट-फेर पर आधारित है। 'सत्य' शब्द से जितने भाव सूचित होते हैं, वे समस्त भाव 'ईश्वरभाव' में आ जाते हैं। ईश्वर उतना ही सत्य है जितनी विश्व की अन्य कोई वस्तु। और वास्तव में, 'सत्य' शब्द यहाँ पर जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, उससे अधिक 'सत्य' शब्द का और कोई अर्थ नहीं। यही हमारी ईश्वर सम्बन्धी दार्शनिक धारणा है।

* * *

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai