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भगवान श्रीकृष्ण की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 9555
आईएसबीएन :9781613012901

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भगवान श्रीकृष्ण के वचन

स्थितप्रज्ञ के लक्षण


¤ हे केशव! स्थितप्रज्ञ पुरुष के क्या लक्षण हैं? स्थितप्रज्ञ पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?

¤ हे पार्थ। जब यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है और जब वह स्वयं अपनी आत्मा में ही सन्तुष्ट होता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ पुरुष कहते हैं।

¤ जिसका मन दुःखों की प्राप्ति में उद्वेगरहित है, सुखों की प्राप्ति में जिसकी स्पृहा दूर हो गयी है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं - ऐसे मुनि को स्थिरबुद्धि कहा जाता है।

¤ जो पुरुष सर्वत्र आसक्तिरहित है, जो शुभ और अशुभ वस्तुओं को प्राप्त करके न तो प्रसन्न होता है और न द्वेष ही करता है, ऐसे पुरुष की बुद्धि स्थिर है।

¤ जैसे कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष सब ओर से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।

¤ जो पुरुष इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण नहीं करता, उसके विषय तो निवृत हो जाते हैं, पर उसका राग निवृत्त नहीं होता। किन्तु स्थितप्रज्ञ पुरुष का राग भी परमात्मा के साक्षात्कार से निवृत्त हो जाता है।

¤ हे कौन्तेय ये प्रमथनशील इन्द्रियाँ यत्न करनेवाले बुद्धिमान पुरुष के भी मन को बलपूर्वक हर लेती हैं। अत: योगी को इन समस्त इन्द्रियों को वश में करके समाहित-चित्त होकर मेरे ध्यान में स्थित होना चाहिए। वस्तुतः जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसकी ही बुद्धि स्थिर होती है।

¤ विषयों का चिन्तन करनेवाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है।

¤ क्रोध से अविवेक उत्पन्न होता है और अविवेक से स्मृति विभ्रमित हो जाती है। स्मृति-भ्रंश से बुद्धि-नाश तथा बुद्धिनाश से मनुष्य पतित हो जाता है।

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